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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [४१] के शास्त्रों में कहे हैं उन्होंको, व अधिकमहीनेके ३० दिन सर्वशालोमें गिनतीलियेहैं,उन्होंको निषेधकरनेकेलिये. अपने धर्मबंधुओंके सा. मने व्याख्यानमें अशांतिके हेतुभूत व अमंगलरूप आपसके खंडनमं. डनसे विरोध भावके झगडे खडे करतेहैं, उससे जैसे राजा वैसी प्रजा'की तरह यही गुण श्रावकामेभी प्रवेश करताहै, इसलिये वर्ष भरके झगडे पर्युषणापर्वमें लाकर कलेशकरके विशेष कर्मबंधनकरतेहैं । इसलिये साधुओंके और श्रावकोंके दोनोंके आपसमें एक एक कीनिंदाकरनेमें,अपनी झूठी २ बडाईकरनेमें, दूसरेका बिगाडकरनेमें, या कोई शासन उन्नतिके कार्यकरतो उनकी साह्यता करनेके बदले उसमे कोईभी अवगुण बतलाकर उसका खंडन करनेमें इत्यादि अमंगलरूप कलेशके कार्यों में सब वर्षचला जाता है । इसलिये दिनोंदिन शासनकी यह दशा होती हुई चली जातीहै। और इससे अपने आत्माके कल्याणमें व परोपकारके कार्यों में भी विघ्न आते हैं, इसलिये मंगलिकरूप पर्वके दिनों में अमंगलिकरूप खंडन मंडनसंबंधी विरोधभावको आपस मेंखडाकरना सर्वथाअनुचितहै.और अपनीसचाई जमानेकेलिये खंडनमंडन वैरविरोधके झगडेही करनेकी इच्छा होतोभी पर्वदिन छोडकर अन्यभी बहुतदिन मौजूद हैं, मगर पर्युषणा पर्व अराधन करनेकेलिये सर्व गच्छवाले श्रावक मुनिराजोंके पास उपाश्रय,धर्मशालामें आवे; उसवखत अपने आपसके खंडनमंडनके विरोधभाववालीबातकोंचलाना यह कितनी बडीअनुचितबातहै.औ. र मंगलिकरूप पर्वदिन किसीप्रकारसेभी कलेशकारक खंडनमंडन के विरोधभावसे अमंगलिकरूप न बनाकर शास्त्रानुसार शांतिसेपर्व काआराधन होतो आत्माभी निर्मलहोवें,वर्षभी हर्षपूर्वक सुखशांतिसे जावे,बुद्धिभी अच्छी होवे. और आत्म साधन व परोपकारभी विशेषरूपसे होवे, संपसे शासन उन्नतिके कार्यों में भी वृद्धि होनेसे वर्तमानिक यह दशाकाभी शीघ्र सुधारा होवे. इसलिये वार्षिक पर्वरूप पर्युषणा शांतिमय सर्वजीवोंके साथ मैत्रिभाव पूर्वक आराधन करके उसमें मांगलिक कार्यकरने चाहिये। और विरोधभावके का. रणरूप खंडन मंडनके अनुचित वीवको छोडनाही अपनेको व दू. सारे भव्य जीवों कोभी कल्याणकारक है । और शासनकी उन्नतिका भी हेतुभूत है. इसबातको जो आत्मार्थी निकट भव्य होंगे, सो दीर्घ दृष्टिसे खूब विचारेंगे, और ऊपर मुजब शास्त्रविरुद्ध अनुचित व्यव. हारको छोडकर शास्त्रानुसार संघ शांतिका उचित व्यवहारको अव. श्यमेवही ग्रहण करेंगे, व दूसरोंकोभी ग्रहण करावेंगे। For Private And Personal
SR No.020134
Book TitleBruhat Paryushananirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar Maharaj
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages585
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size10 MB
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