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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [४०] कितनीही जगह प्रत्यक्ष मिथ्या कथनकरके आपसमेही विशेषरूपसे खंडन मंडनके झगडे चलाते हैं, और पर्वदिनोंमें सबजीवोंकी जगह केवल जैनीमात्रसेभी मित्रता नहीं रख सकते,उससे मैत्रीभावनाका भंग,विरोधभावकी वृद्धि,व खंडन मंडनसे रागद्वेष करके कर्मबंधनका कारण करते हैं । और शास्त्रविरुद्ध प्ररूपणा करनेसे जिनाशाकी. भी विराधना करतेहैं, उससे परिणामोंकीभी मलिनता होनेसे पर्व दिनों में वर्षभरके अतिचारोंकी आलोचना करके आत्माको निर्मल करनेके बदले विशेषरूपसे मलिनकरतेहैं.और खंडन मंडनके झगडे. के लिये सबजीवासे क्षमत क्षामणे करनेके बदले अपनेसर्व जैनीभा. ईयोसेही क्षमतक्षामणे नहींकरसकते. उससे अनंतानुबंधी कषायके उदयहोनेका प्रसंगआनेसे सम्यक्त्वकी व संयमकी विराधना होकर संसारभ्रमणका कारणकरतेहैं. इसलिये कर्मक्षयकारक महामंगलमय शांतिके पर्वदिनोंके व्याख्यानमें श्रीमहावीरस्वामीके छ कल्याणक आगमों में कहेहैं उन्होंको, व अधिकमहीनेके ३० दिनोंको सर्वशा. स्रोमगिनतीमे लियेहैं, उन्होंको निषेधकरनेकेलिये खंडनमंडनके विवादके झगडे कितनेक तपगच्छके मुनिमहाराज जो व्याख्यानमे च. लातेहैं, सो पर्वकी विराधना करनेवाले,शांतिके भंग करनेवाले, अ. मंगळरूप अशांतिको बढानेवाले, व उत्सूत्रप्ररूपणासे संसार बढाने वाले होनेसे, तत्त्वदर्शी, विवेकी, आत्मार्थी भव भिरू, अल्पसंसारी सज्जनोंको अवश्यही छोडना योग्यहै । इस बातकोभी विशेष निपक्षपाति पाठकगण स्वयं विचार सकते हैं। ४३--पर्युषणाके मंगलिक दिनोंमें क्लेशकारक अमं गलिक करना योग्य नहीं है। यहबात व्यवहारसे प्रत्यक्ष अनुभवपूर्वक देखनेमें आती है,कि. मांगलिकरूप वार्षिक पर्व दिन सुखशांतिसे हर्षपूर्वक व्यतीत होवे, तो, वो वर्षभी संपूर्ण सुखशांतिसे व्यतीत होता है, मगर मांगलिक रूप पर्वदिनों में किसीके साथ विरोधभाव कलेश होकर अमंगलरूप अपशुकन होवे, तो वो वर्षभरभी चिंतासे कलेशमेंही जाताहै,इसलि. ये पर्वके दिनोंमें तो अवश्यही शांति रखना योग्य है । इसप्रकार व्यवहारिक बातकेभी विरुद्ध होकर तपगच्छके अभी कितनेही मुनिमहाराज पर्युषणा जैसेपरम मांगलिकके दिनो मी शांतिसे नहीं बैठते,और सुबोधिका-दीपिका-किरणावली वगैरहके विवादवाले विष. यहाथमे लेकर श्रीमहावीरस्वामिके छ कल्याणक आगमपंचांगी अने. For Private And Personal
SR No.020134
Book TitleBruhat Paryushananirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar Maharaj
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages585
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size10 MB
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