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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ४२० ] इसलिये भोले जीव जानते है कि सातवें महाशयजीकी तरफ से पर्युषणा विचारका लेख प्रगट हुवा है सेा शास्त्रानुसार गुति पूर्वकही होगा परन्तु उसी लेखको तत्वज्ञ पुरुषों मे देखा तो निषकेवल शास्त्रकार महाराज के विरुद्धार्थमें तथा उत्सूत्र भाषणोंके संग्रह वाला और कुयुक्तियोंके संग्रह वाला होनेसे अज्ञानी जीवोंको मिथ्यात्वमें फंसाने वाला मालूम हुवा तब उसीकी शास्त्रानुसार युक्ति पूर्वक समीक्षा मेरेको भव्यजीवोंके उपकार के लिये इतनी लिखनी पड़ी है इसको बांधकर सातवें महाशयजी को अपनी विद्वत्ता के अभिमानसे और अभिनिवेशिक मिथ्यात्वके करणसे अपना मिथ्यापक्षके कल्पित कदाग्रहको छोड़कर सत्य बात ग्रहण करनी बहुतही मुश्किल होनेसे ( कदाग्रह न छूटता भले स्व परंपरा पालो ) ऐसे अक्षर लिखके कदाग्रहको तथा शास्त्रों के प्रमाण बिना कल्पित बातोंकी अंध परम्पराको पुष्ट करके ओले जीवों को उसी में फंसाये और आपने भी उसीका शरणाले करके अपना अन्तर मिथ्यात्त्वको प्रगट किया इसलिये इस ग्रंथकारका सब सज्जन पुरुषों को यही कहना है कि जो अल्पकर्मी मोक्षाभिलाषी आत्मार्थी होगा सोतो शास्त्रों के प्रमाण विरुद्ध अपने अपने कदाग्रहकी अन्ध परंपरा के पक्षका आग्रहमें तत्पर न बनके इस ग्रंथके सम्पूर्ण पढ़ करके पंचांगी प्रमाण पूर्वक युक्ति सहित सत्य बालोंको ग्रहण करेगा दुसरोंसे करावेगा और बहुल कर्मी मिथ्यात्वी होगा सेतो शास्त्रानुसार युक्तिपूर्वक सत्य बातोंको जानकर केभी उसीका ग्रहण न करता हुआ अपने कदायहकी अन्ध परम्परामे रहकर उसीको पुष्ट करने For Private And Personal
SR No.020134
Book TitleBruhat Paryushananirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar Maharaj
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages585
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size10 MB
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