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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ( १ ) बदा सप्तत्या अहोरात्रेण चातुर्मासिकंप्रतिक्रमणं विहितं तद. मन्तरं प्रत्यूषविहत्तव्यं कारणान्तराभावे। तत्सदावे तु मार्गशीर्षेणापि सह आषाढ़ मासेनापि च सह षण्मासा इति : यत् पुनरभिवर्द्धितवर्षे दिन विंशत्या पर्युषितव्यमिति, उच्यते तत्सिद्धान्त टिप्पनानुसारेण तत्र हि प्रायो युगमध्ये पोषो युगान्ते चाषाढ़एववर्द्धते तानि च नाधुना सम्यग ज्ञायन्ते अता लौकिकटिप्पनानुसारेण यो मासो यत्र वर्द्धते स तत्रैव गणयितव्यः नान्याकल्पनाकार्या दृष्टं परित्यज्याग्दृष्टकल्पनानसङ्गता आनाया ऽपरिज्ञानात्तु कल्पनापि न निश्चयितव्येति सांप्रतं तु कालकाचा-चरणाच्चतुर्थ्यामपि पर्युषणां विधति इत्यादि। देखिये ऊपरके पाठमें श्रीसमवायाङ्गजी यथा तवृत्ति और श्रीदशाश्रुतस्कन्धसत्रको नियुक्ति तथा उसीकी चर्णिके पाठोंके प्रमाण पूर्वक दिनांकी गिनतीसे आषाढ़ चौमासीसे ५० वें दिन मासवृद्धि के अभावसे चन्द्रसंवत्सरमें निश्चय निवास पूवक ज्ञात पर्युषणामें सांवत्सरिक प्रतिक्रमणादि करनेका प्रगटपने खुलासे दिखाया है और योग्य क्षेत्रके अभावसे ५० वें दिनको रात्रिको भी उल्लंघन न करते हुए जंगलमें वृक्ष नीचे पर्युषणा करलेनेका भो खुलासा लिखाहै और चन्द्रसंवत्सरमें ५२ दिने पयु षणा करनेस कार्तिक तक स्वभावसेही 92 दिन रहते हैं सो जघन्यकालावग्रह कहा जाता है और प्राचीनकालमें जैन पंचाङ्गानुसार पौष वा आषाढकी वृद्धि होनेस अभिर्द्धित संवत्सरमे आषाढ़ चौमासीसे वीस दिने श्रावण सुदीमें ज्ञात पर्युषणा करने में आती थी तब भी पयुषणाके पिछाड़ी कार्तिक तक स्वभावसेही For Private And Personal
SR No.020134
Book TitleBruhat Paryushananirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar Maharaj
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages585
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size10 MB
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