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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir श्रीआत्मारामजी ठहरे, आप कोई कार्य करना अथवा आप आज्ञा देकर कोई कार्य कराना सो भी बरोबर है जिससे मेंने श्रीआत्मारामजीका नाम लिखा है इसी न्यायसे श्रीधनविजयजीका भी नाम जानो-कदाचित् कोई ऐसा कहेगा कि गुरु महाराजकी आज्ञाविनाही प्रसिभ कर दिवी होगो तो इसपर मेरा इतनाही कहना है कि गुरु महाराजकी आज्ञा विना जो कोई भी कार्य शिष्य करे तो उसको गुरु आज्ञा विराधक अविनित तथा अनन्त संसारी शास्त्र कारोंने कहा हैं ऐसेको हितशिक्षारूप प्रायश्चित्त दिया जाता हैं तथापि अविनित पमेसें नही माने तो अपने गच्छसे अलग करनेमें आता है सो बात प्रसिद्ध है इसलिये जो श्रीआत्मारामजीकी आज्ञासे जैन सिद्धान्तसमाचारीकी पुस्तक तथा श्रीधर्मविजयजीकी आज्ञासे पर्युषणा विचारकी पुस्तक प्रसिद्ध हुई होवे तब तो उस दोनो पुस्तकमें शास्त्रकारों के विरुसार्थ में अधूरे अधूरे पाठ लिखके उत्सूत्रभाषणरूप अनुचित बाले लिखी है जिसके मुख्य लाभार्थी दोनो गुरुजन है इसी अभिप्रायसे मैंने भी दोनो गुरुजनके नाम लिखे हैं और अब उपरोक्त महाशयोंके लिखे लिखोंकी समीक्षा करते हैं जिसमें प्रथम इस जगह श्रीविनयविजयजी कत श्रीकल्पसूत्रकी सुबोधिका ( मुखबोधिका ) वृत्तिविशेव करके श्रीतपगच्छमें प्रसिद्ध हैं तथा वर्तमानिक श्रीतपराच्छके साधु आदि प्रायः सब कोई शुद्ध श्रद्धापूर्वक सरल जानके उसीको हर वर्षे गांव गांवके विषे श्रीपर्युषणापर्वमें वांचते हैं जिर में अधिक मासकी गिनती निषेध करने के लिये लिखा हैं जिसको यहाँ लिखकर पीछे उसी में जो अनुचित्त है For Private And Personal
SR No.020134
Book TitleBruhat Paryushananirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar Maharaj
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages585
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size10 MB
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