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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ १०९ ] विभक्तिव्यत्यया ततःपरं विंशतिरात्रमासा चोर्द्ध मनभिहीतं निश्चितं कर्त्तव्यं गृहीज्ञातंच गृहिस्थानां पृच्छतां ज्ञापना कर्तव्या यथा वयमत्र वर्षाकालस्थिताः एतच्च गृहिज्ञात कार्तिकमासं यावत् कर्तव्यं इत्यादि इसका भावार्थः ऐसा है कि-वर्षाकालमें साधु एक स्थानमें ठहरने रूप निवासको पर्युषणा करे सो प्रथम गृहस्थो लोगोंके न जानी हुई अनिश्चय पर्युषणा होती है और दूसरी जानी हुई निश्चय पर्युषणा होती है इस प्रकारकी न जानी हुई पर्युषणा कितने काल तक और जानी हुई पर्युषणा कितने काल तक होती है सो कहते है कि-एक युगमें पाँच संवत्सर होते हैं जिसमें दो अभिवर्द्धित और तीन चन्द्रसंवत्सर होते हैं जब अभिवर्द्धित संवत्सर होता है तब आषाढ़चौमासी प्रतिक्रमण किये बाद वीश अहोरात्रि अर्थात् श्रावण शुक्ल पञ्चमी तक और चन्द्र संवत्सर होता है तब पचास अहोरात्रि अर्थात् भाद्रपद शुक्लपञ्चमी तक गृहस्थी लोगोंके न जानी हुई अनिश्चय पर्युषणा होती है परन्तु पीछे जानी हुई निश्चय पर्युषणा होती है और कोई गृहस्यो लोग साधुजीको आषाढ चौमासी बाद पूछे कि आप यहाँ वर्षाकालमें ठहरे अथवा नही तब उसीको साधुजी अभिवर्द्धितमें वीशदिन और चंद्रमें पचास दिनतक, हम यहाँ ठहरे हैं ऐसा अधिकरण दोषोंकी उत्पत्तिके कारणसे न कहे और पीछे याने अभिवर्द्धितमें वीशदिने श्रावण शुक्ल पञ्चमी के बाद और चंद्र में पचास दिने भाद्रपद शुक्लपञ्चमीके बाद गृहस्थी लोगोंको कह देवें कि-हम यहाँ वर्षाकालमें ठहरे हैं ऐसा कहनेसे गृहस्थी लोगोंको जानी हुई पर्युषणा कही For Private And Personal
SR No.020134
Book TitleBruhat Paryushananirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar Maharaj
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages585
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size10 MB
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