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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ४३७ ] चतुर्मासिकमपि सिद्धांते कवर्वति सत्यं परमधिकमासोऽस्मा भिर्नगण्यमानोस्ति एवं चेत्तर्हि अस्माभिरपि यदाधिकः श्रावणो भाद्रपदोवावर्द्धते तदर नगण्यते तेनाशीतिदिनानि पञ्चाशदिनान्येवेतीत्यादि। अब पं० हर्षभूषणजीके ऊपरका लेखको तत्वज्ञ पुरुष निष्पक्षपातसे विचारेंगेता प्रत्यक्षपने उनके भ्रमजालका परदा खुल जावेगा क्योंकि युक्ति और आगम क्रमके बहाने उत्सत्र भाषणाका संग्रह करके कुयुक्तियोंकी भ्रमजालमें बालजी. वोंको गेरनेका कारण किया है सो तो प्रत्यक्ष दिखता है क्योंकि ८० दिने पर्युषणा करनेका किसी भी शास्त्र में नहीं कहा है परन्तु श्रावण भाद्रपदादि अधिक होनेसे पंचमासके १० पक्षोंके १५० दिनका अभिवर्द्धित चौमासा तो प्रत्यक्षपने अनुभवसे देखने में आता है इसलिये निषेध नहीं हो सकता है और अधिक मासको गिनतीमें निषेध करके दूसरे श्रावण के ३० दिनोंको गिनती में छोड़कर ८० दिनके ५० दिन अपनी मतिकल्पनासे बनाते हैं सो निषकेवल उत्सूत्र भाषण है क्यों कि शास्त्रानुसार तथा युक्तिपूर्वकसे तो ८० दिनके ५० दिन कदापि नहीं हो सकते हैं सो तो इस ग्रन्यको पढ़नेवाले स्वयं विचार लेवेंगे। और फिर आगे । ननु 'अभिवढियंभि वीसा इयरेसु सवीसइमासो' निशीधभाष्ये इत्यत्राधिकमासोगणितास्ति । इस तरहसे अधिक मासकी गिनती सम्बन्धी पूर्वपक्ष उठाकर उसीका उत्तरमें-'आसाढ़ परिणमाएपविठा' इत्यादि निशीथ पूर्णिका अधरा पाठसे अज्ञात पर्युषणाकी और 'बीसदिणे हिंकप्पो' इत्यादि बिनाही प्रसङ्गकी विच्छेद For Private And Personal
SR No.020134
Book TitleBruhat Paryushananirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar Maharaj
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages585
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size10 MB
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