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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ४-५० देन तो प्रामादिक न होवे तोभी जगलमें वृक्षनीचेभी अवश्यही पर्युषणा करनको आवश्यकता बतलाइहै, आर ७० दिन. की स्वाभाविक गिनती बतलाई है,परंतु वैसीही ७०दिन की आवश्य. कता नहीं बतलाई, इसलियेभी७०दिनका हमेशां नियत नियम नहीं है. ५-७० दिवसकापाठ मासवृद्धिके अभावसंवधी है, इसलिये. उसको मासवृद्धि होनपरभी आगकरना व उसपर आग्रहकरना सो शास्त्रकार महाराजोके अभिप्रायविरुद्ध होनेसे सर्वथा याग्य नहीं है. ६- इन्हीं समवायांगसूत्रके टीकाकार महाराज ने स्थानांगसूत्रवृत्तिमें, मासवृद्धि होवे तब पर्युषणाके पिछाडी कार्तिकतक १००दिन ठहरनेकाकहाहै, उसको उत्थापन करना और शास्त्रकार महाराजके अभिप्राय विरुद्ध होकर १०० दिनकी जगहभी ७० दिन ठहरनेका आग्रह करना सो आत्मार्थियों को कभी योग्य नहीं है। ७- निशीथचूर्णि-वृहत्कल्पचूर्णि--वृत्ति-पयुषणाकल्पनियुक्तिचूर्णि-वृत्ति-गच्छाचारपयन्नवृत्ति-जीवानुशासनवृत्ति वगैरह प्राचीन शास्त्रोमे, वर्षास्थितिकेलिये कालावग्रहम, जघन्यसे ७० दिन, मध्यमंसे ७५-८०-८५-९०-९५ यावत् १२० दिन, और उत्कृष्ट से १८० दिनका कालमान प्रमाण बतलाया है, उसके अंदर से एक दिनमा भी गिनती में नहीं छट सकता. जिसपरभी शास्त्रविरुद्ध होकर वर्षास्थितिके अनियत व जघन्य७०दिनके नियम को हमेशां नियत नियम ठहराने का आग्रह करना सो विवेकीयोंको सर्वथा योग्य नहीं है । ८-निशीथचूपयादिमें द्रव्य-क्षेत्र-काल और भावसे पर्युषणाकी स्थापना करनी बतलायी है, उसमें काल स्थापना संबंधी समयआवलिका-मुहत-दिन-पक्ष-मासले अधिक महीने के भी ३० दिनोंकी गिनती सहित प्रत्येक दिवलको पर्युषणासंबंधी कालस्थापनाके अधिकारमें गिनतीमलियह,इलालय पर्यपण संबंधी दिनसंख्यामेसे एक दिनभी गिनतीम निषेध नहीं होताहै, जिसपरभी जघन्य ७० दि. नके अनियत नियमको माल बढ़ने पर भी आगे करते हैं. और फिर अधिकमहीने के ३० दिन गिनतीमे छोडकर १०० दिनके ७० दिनभी अपनी कल्पनासे बना लेते हैं, लो सर्वथा चूर्णिके विरुद्ध है, इसका विशेष विचार तत्वज्ञजन स्वयं कर लेवेगे। . - सीतर दिनका नियल नियत्र न होनसे ७० दिनके ऊपर ज्याद दिनमी होते हैं, और " वासावासाए अणाधुट्टीए, आसोए कत्तिए पा निग्गताणं, अह अतिरित्ता भवंति" इत्यादि निशीथचूर्णि, For Private And Personal
SR No.020134
Book TitleBruhat Paryushananirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar Maharaj
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages585
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size10 MB
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