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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ २०१ ] इस लेखकी समीक्षा करके पाठकवर्ग को दिखाता हुंजिसमें प्रथमतो न्यायांशोनिधिजीकों ज्योतिषग्रन्थका विवाहादि कार्योंका दृष्टान्त दिखा करके पर्युषणा पर्वका निषेध करनाही उचित नही है इसका उपरमें अच्छी तरहसे खुलासा हो गया है और दूसरा यह है कि श्री तीर्थङ्कर गणधरादि महाराजोंने मासवृद्धिको कालचूलाकी उत्तम ओपमा दिवी है तथापि न्यायांसोनिधिजीने तीनों महाशयोंका अनुकरण करके श्रीतीर्थङ्कर गणधरादि महाराजोंके विरुद्धार्थ में तथा इन महाराजोंकी आशातना का भय न करते मासद्धिको नपुंसककी तुच्छ ओपमा लिख करके भोले जीवों को अपने फन्दमें फसाये हैं सो वड़ाही अफसोस है और तीसरा यह है कि रत्नकोषाख्य (रत्नकोष) ज्योतिष शास्त्र में तो मुहर्तके निमित्तसें जो जो कार्य होते हैं उसी में अनेक कारण योग वजन किये हैं उसीकों सब को छोड़करके सिर्फ एक अधिक मास सम्बन्धी लिखते हैं सो भी न्यायांभोनिधिजीको अन्याय कारक है इसलिये मुहूर्त के कार्योंको दिखाकर बिना मुहूर्त्तका पर्युषणापर्व करनेका निषेध करना योग्य नहीं हैं। ___ और भी चौथा सुनो-(यात्रामण्डन, विवाहमण्डन और भी शुभकार्य है सोभी पण्डित पुरुषोंने सर्व नपुंसके मासि कहने से अधिक मासमें त्यागने चाहिये) इसपर मेरा इतना ही कहना है कि पूर्वोक्त तीनों महाशय और चौथे न्यायाम्भोनिधिजी यह चारों महाशय अधिकमासको नपुंसक कहके जो सर्व शुभकार्य त्यागने का ठहराते है। इससे तो यह सिद्ध होता है कि पौषध, प्रतिक्रमण, ब्रह्मचर्य, २६ For Private And Personal
SR No.020134
Book TitleBruhat Paryushananirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar Maharaj
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages585
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size10 MB
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