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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ६८ ] 1 • जीवको मिथ्यात्वके भ्रममेंगेरनेका अनर्थ करना सर्वथा अनुचित है. और जैसे-देवलोक से च्यवन हुए बाद तथा माता के गर्भ में अवतार लेनेबाद नमुत्थुणं वगैरह च्यवन कल्याणकके कार्य होते हैं, तो भी 'कारणमें कार्यका उपचार' होता है, इसलिये च्यवनसमय नमुत्थुणं वगैरह कार्य होने का कहने में आता है । तैसेही यद्यपि देवानंदामाताके गर्भ में नत्थूणं हुआ तो भी आषाढशुदी ६के दिननहीं, किंतु आसोज वदी १३ के दिन हुआ है, तथा उसी समय त्रिशला माता के गर्भ में जानेका होने से उन्हीके निमित्त भूतही 'कारणमें कार्यका उपचार' मानकर त्रिशला माता के गर्भ में आने संबंधी नमुत्थुणं वगैरह कार्य होने का कहने में आता है. और इन्द्रमहाराज भगवान्‌ के विनयवान भक्त थे; इसलिये अवधिज्ञानसे भगवान्‌को देखतेही उससिमय नमुत्थु किया और त्रिशला माता के गर्भ में पधराये. यदि भगवान्को अवधिज्ञान से देवानंदामाता के गर्भ में देखकर त्रिशलामाता के गर्भ में पधराये बाद पीछे सेनमुत्थुणं करते तो विनयभक्तिरूप मर्यादाकाभंग होता, इसलिये विनय भक्तिरूप मर्यादा रखनेकेलिये पहिले नमुत्थुणं किया और पीछे त्रिशलामाता के गर्भ में पधराये देखो, जैसे कोई राजा महाराजा भगवान्का आगमन सुनने मात्रसेही हर्षयुक्त होकर उसीसमय उसी दिशा तरफ पहिले वहांसेही भगवान्‌को नमस्कारकरते हैं, और बादमें भगवानके पास वहां जाकर उचित भक्ति करते हैं । तैसेही इन्द्रमहाराजने भी अवधिज्ञानसे भगवान को देखते ही वहांसे नमुत्थुर्णरूप नमस्कार किया और त्रिशलामाता के गर्भ में पधराये, बाद त्रिशला माता के पास में आकर तीन जगतके पूजनीक तीर्थकर पुत्र होनेका कहा और देवताओंको आज्ञा करके धनधान्यादिककी वृद्धि करवाने वगैरह कार्योंसे भगवानकी उचित भक्ती करी । यह सर्व कार्य आसोजवदी १३ के दिन हुए हैं, इसलिये कारणमें कार्यका उपचार माननेसे नमुत्थुणं वगैरह तमाम कार्य त्रिशलामाताके गर्भ में आनेसंबंधी समझने चाहिये. जिसपर भी देवानंदा के गर्भ में नमुत्थुणं होनेका कहकर त्रिशलाके गर्भमे आनेसंबंधी आसोज वदी १३के दिनको च्यवन कल्याणकपने रहित कहते हैं उन्होंकी अज्ञानता है । और जो बात नहीं बननेवालीहोवे; असंगतीरूप या असंभवित होवे, वोही बात कभी कालांतर में बनजावे, उन्हीं बातको शास्त्रोंमें आश्चर्य कारक अच्छेरारूप कहते हैं । इसलिये जिसबातको अच्छेरा कह दिया, उस बात में अन्य शास्त्र प्रमाणकी मर्यादा बाधक For Private And Personal
SR No.020134
Book TitleBruhat Paryushananirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar Maharaj
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages585
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size10 MB
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