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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [६९] नहीं हो सकती.इसी तरहसे भगवानकेभी देवानंदा माता तथा त्रिशलामाता दोनोंका गर्भकाल मिलकर ९ महीने और ऊपर ७॥ दिन मानतेहैं, मगर देवानंदाके गर्भमें आनेको शास्त्रकारोंने अच्छेरा कहा है. और ८२ दिन गये बाद त्रिशलाके गर्भमें आनेको तीर्थकर पनेके भवमें गिनाहै, इसलिये देवानंदाके गर्भ में आये तब च्यवन कल्याणक के सर्वकार्य नहीं हुए, परंतु. त्रिशलाके गर्भ में आये तबही च्यवनकल्याणकके सर्व कार्य हुए हैं. तो भी देवानंदाके गर्भ में भगवान आये तब माताने १४ महास्वप्न देखे,तथा ८२ दिनतक वहां विश्रामलिया और शरीर-इन्द्रीय-पर्याप्ति देवानंदामाताके शरीरसे बने हैं. इसलिये देवानंदाके गर्भमें आनेकोभी भगवान के प्रथम च्यवनरूप कल्याणक पना मानते है । और जैसे-मारवाड,गुजरात,दक्षिण, पूर्व वगैरह देशाम पुत्रको दत्तक [गोद लेनेमे आताहै, उनके पहिलेके मातापिता अलगहोते हैं और पीछेपालने पोषनेवाले दूसरे मातापिता अलगहोते हैं, इसलिये उनके दो माता और दो पिता कहने में कोई दोष नहीं आता, मगर नाम पीछेवालोका चलता है । तैसेही भगवान केभी दे वानंदाके गर्भसे ८२दिन गये बाद आश्चर्यरूप त्रिशलाके गर्भमें आना पडा, उससे दो माता तथा दो पिता और दो च्यवन कल्याणक माननेमें आते हैं. इसलिये दोनों माताओंका गर्भकाल मिलकर ९महीने और ७॥ दिन हुए है, तो भी दो च्यवन कल्याणक मानने में कोईभी शास्त्र बाधा नहीं आ सकती और कोई कुयुक्ति व वितर्कभी बाधकन हीं होसकती, इस बातको विशेष तत्त्वज्ञजन स्वयंविचार सकते हैं। __इन सर्वबाताका विशेषनिर्णय ऊपरके भूमिकाके लेखमें और इस ग्रंथमें अच्छीतरहसे सर्व शंकाओका निवारणपूर्वक खुलासा होचुकाह, यहां तो उसका संक्षिप्तसार बतलायाहै,और विशेष निर्णय क. रनेकी अभिलाषावाले तत्त्वसारग्रहण करनेवाले पाठकगण इस ग्रंथको संप्रेण वांचेगे तो सर्वबातों का खुलासा अच्छी तरहसे होजावेगा विवादवाले विषयों संबंधी अभिप्राय. तपगच्छ के श्रीमान् विजयधर्मसूरिजीके शिष्य श्रीमान् रत्नविजयजीने विवादवाले विषयों संबंधी पौषशुदी३बुधवार,श्रीवीरनिओण संवत् २४४३ के जैन शाशन पत्रके पृष्ठ ५८८ में श्रीपार्श्वनाथस्वामीकी परंपरासंबंधी उपकेशगच्छ (कवलागच्छ) की हकीकत छपवाया है, उसका थोडासा उतारा यहांपर बतलाते हैं। For Private And Personal
SR No.020134
Book TitleBruhat Paryushananirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar Maharaj
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages585
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size10 MB
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