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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [७०] "श्रीरत्नप्रभमरिजीकृत सामाचारीमा लख्युंछे के.पुष्पवती थया. बाद स्त्रीने पूजा नहीं करवी. आंबिलमा २-३ द्रव्य कल्पे. तथा देव. गुप्तसूरिजीकृत कल्पसूत्रनो टीकामां ६ कल्याणिक लख्यां छे,पजोस. णा ५० दिवसे करवा इत्यादि " तथा "वीर प्रभुना २८ भव लख्या छे, सुधर्मा, जंबु, प्रभव, सिजंभव ए चारना ८४ शाखा, ४५ गण, ८ कुल थया. आ सामाचारी तथा कल्प टीका हालनां गच्छोथी घणी प्राचीन बनेली छे, प्राचीन समयथी ६ कल्याणिक, स्त्री पूजा निषेध विगेरे प्रवृत्तिओ चाली आवीछे, जिनदत्तसूरिजी, जिनवल्लभसूरिजी विगेराने लोको खाली निंदे छे, नवु कोईए कर्यु नथी. पजोषण जे. वा वतिराग पर्वमां कल्पसूत्रना मांगलिक व्याख्यानमां चतुर्विध श्रीसंघमां अकारण कलह करी जैनभाईयोनां अंतकरण दुभावी ध. मनी निंदा करावी वर्षावर्ष अनी वातने ' अभूतभावच्चि' क. रीने किंतुना कलासमा दाखल करवी, ए कोई रीते इच्छवा योग्य नथी, शासन प्रेमी महाशयो आ बाबत बराबर समजी गया हशे, [अयं निजपरोवेत्ति, गणनालघु चेतसा । उदार चरितानां तु,वसुधैव कुटुंबकम्' ॥१॥] आमा 'वसुधैव कुटुंबकं' ए वाक्य अत्यंत श्रेष्ट छे पण अने बदले 'सर्व गच्छ कुटुंबकं एबुं बनो,एज प्रार्थना, याचना अने सलाह"यहीलेख उसीअरसेमे जैनपत्र भी प्रकाशित होगयाहै औरभीजेठवदिबुधवार वीर सं०२४४४ के जैनशासनपत्रकेपृष्ठ१६८ में श्रीरत्नविजयजीने पर्युषणामें समभावरखनेसंबंधी लेख छपवाया. था,उसमेसे थोडासाबतलातेहै."दरेकगच्छनीपट्टावलीजुओ,तेमांपर स्पर पठनपाठन साथे रहेता,वंदनादि व्यवहार करता, विनयमूल ध. मनी पुष्टि करनाराहता,आजे विरोधभाव करनारा बीकनथीराखता. खरतरगच्छना आचार्योने सत्कारआपनारा तपगच्छना साधुओहता अने तपगच्छनाआचार्योने बहुमान आपनारा खरतरगच्छनासाधुओ हता, तपगच्छना जेवा परम प्रभाविक पुरुषो थयाछे.तेवाज खरतर गच्छमां परम प्रभाविक पुरुषो थया छे.जिनदतमूरिजी, जिनकुशल सूरिजी जेणे सवालाखनवा जैनो बनाव्या,हजारोराजा महाराजाओने जैन धर्म अंगीकार कराव्यो, हजारो क्षत्रीयोने ओसवाल बनाव्या, जिनचंद्रसूरि,जिनहर्षनारी जिनप्रभसूरि आदि अनेक प्रभाविक पुरुषो थया. तेवा महा पुरुषोना अवर्णबाद बोलवा,आवते भवे जीभ पाम वी मुश्किल छे. उपकारी नो उपकार रदी करवो महा भयंकर पाप छे, एक खास मुद्दो तपाशोके आजे साधुओ वखाणमां टीकाओ For Private And Personal
SR No.020134
Book TitleBruhat Paryushananirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar Maharaj
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages585
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size10 MB
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