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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [७१] पांचछे तथा चरित्रोनां चरित्रो वांचेछे, ग्रंथो वांचेछे ते घणेभागे खरतर गच्छना बनावेला ग्रंथो छे, परस्पर गच्छवालाओ वांचे छ सर्व गच्छवालाओ श्रद्धाथी सांभले छे' पुरुष विश्वासे वचन वि श्वास' जेना बनावेला पुस्तको हाथमां लई सन्मुख धरी वांचो छो, अने मोढेथी तेज आचार्योनी बद बोई कराय. आजे दादा साहेबने मानवा वाला चरण पादुकाना दर्शन करनारा तपगच्छवाला हजा. रो भाविक भक्तो छ तथा श्री हीरविजयसूरि प्रमुखने माननारा ख. रतरगच्छना हजारो भाविक भक्तोछे.आवा शंभु मेलामां खाली वि. क्षेप पेदा करवाथी कोईन कल्याण थवानुं नथी" इत्यादि. देखो-ऊपर मुजब खास तपगच्छके श्रीरत्नविजयजीके लेखपर खूब दीर्घ दृष्टिसे विवेकपूर्वक विचार किया जावे, तो श्रीपार्श्वनाथस्वामिकी परंपराके श्रीदेवगुप्तसूरिजीकृत कल्पसूत्रकी प्राचीन टीका वगैरह शास्त्रानुसार पहिले पूर्वाचार्योंके समयसेही श्रीवीर प्रभुके २८ भव, तथा छ कल्याणक मानने वगैरह बातें प्रचलीतही थी. उन्हीके अनुसार श्रीजिनवल्लसूरिजी वगैरह महाराजोंने चैत्य. वासियोंको हटाते हुए, भव्य जीवोंके सामने विशेषरूपसे प्रकटपने कथन की हैं । परंतु शास्त्रविरुद्ध होकर नवीन प्ररूपणा नहीं की, जिसपरभी आगमप्रमाणोंको उत्थापन करके शास्त्रकार महाराजोंके अभिप्रायको समझे बिना अपनी मतिकल्पनासे शास्त्रपाठोके खोटे खो रे अर्थ करके नवीन छठे कल्याणककी प्ररूपणा करनेका झूठा दोष लगाते हैं. सो प्रत्यक्षपणे मिथ्याभाषणकरके अपने दूसरे महाव्रतका भंग करना और भोलेजीवोंको उन्मार्गमें गेरना सर्वथा अनुचितहै । और श्रीजिनवल्लभसूरिजी, श्री जिनदत्तभूरिजी महाराज जैसे शासन प्रभावक परम उपकारी पुरुषोंने, चैत्यवासियोंकी उत्सूत्रप्ररूणाके तथा शिथिलाचारके मिथ्यात्वको हटाया, और क्षत्री-ब्राह्मा. गादि लाखों अन्य दर्शनियोंको प्रतिबोधकर जैनी श्रावक बनाये, उ. म्हौकीही वंश परंपरा वाले अभी वर्तमानमेंभी गुजरात, कच्छ, मा. वाड, पूर्व, पंजाब,दक्षिणादि देशोंमें लाखों जैनी विद्यमान मौजूद है। इसलिये उन महाराजोने परंपराके हिसाबसे करोडो जीवों को सम्यक्त्व प्राप्त कराने संबंधी बडाभारी महान् उपकार किया है। तथा विद्या मंत्र, देवसाह्य,व संयमानुष्टाने-आत्मशक्ति प्रकाशित कर. के बहुत बडीभारी जैन शासनकी प्रभावना करी. उन महाराजोंके प्रतिबोधे हुए श्रावकोकी वंश परंपरावाले श्रावकोसेही, वर्तमानिक For Private And Personal
SR No.020134
Book TitleBruhat Paryushananirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar Maharaj
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages585
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size10 MB
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