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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ३०३ ] भारी कम के बंध किये हैं और श्रीजैनशासनके निन्दकोंको भी उसी रस्त पहुंचानेके लिये नरकादि अधोगतिका सार्थवाह ( कुंदनमल ढूंढक ) बना है और पुस्तक प्रगट कराई हैं जिसमें छठे महाशयजीके गुरुजीकी तथा उन्हों के सम्प्रदाय वालोंकी भी निन्दा करी हैं तथा खास छठे महाशयजी वगैरह को भी अनेक शब्द लिखते तीनवार धोक्कार भी लिख दिया हैं और श्रीजैनशासनको निन्दा करके मिथ्यात्व बढ़ानेका कारण किया - उसीको तो छठे महाशयजीनें कुछ जबाब भी न दिया और सर्व श्रीसङ्घको तथा वकील, बेरिस्टर वगैरहको सावधान करके कोर्ट कचेरीमें श्रीजैनशासन के निन्दक कुंदनमल्लको शिक्षा दिलाने की किञ्चिन्मात्र भी बहादुरी न दिखाई परन्तु श्री खरतरगच्छके और श्रीतपगच्छके आपसमें वृथाही कोर्ट कचेरी में झगड़ा फैलाने के लिये और मिथ्यात्व बढ़ाने के लिये, वकील, बेरिस्टर, वगैरको सावधान करके वड़ीही बहादुरी दिखाई हैं सो वड़ीही आश्चर्य्यकी बात है कि श्रीजैनशासनके दुशमन निन्दको से तो मुख छिपाते हैं और आपस में झगड़ा करनेकी बहादुरी दिखाते कुछ लज्जा भी नही पाते है, - · अब छठे महाशयजीको मेरा ( इस ग्रन्थकारका ) इतनाही कहना है कि आप सम्यक्त्वी और श्रीजैनशासनके प्रेमी होवो तो प्रथम श्रीखरतरगच्छके और श्रीतपगच्छके आपनमें न्यायानुसार शास्त्रार्थ पूर्वक अन्तरका पक्षपात छोड़कर सत्य असत्यका निर्णय करके असत्यको छोड़के सत्यको ग्रहण करो और श्रीजैनशासन के निन्दक कुंदनमल्लके For Private And Personal
SR No.020134
Book TitleBruhat Paryushananirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar Maharaj
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages585
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size10 MB
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