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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [१०] हो सकते हैं, इसलिये लौकिक वालेभी मुहर्त वाले कार्य नहीं करते,मगर बिना मुहूर्त्तकेदान, पुण्य,जप, तप परोपकारादि तो विशेष रूपसे करनेके लियही अधिकमहीनेको 'पुरुषोत्तमअधिकमास',कहते हैं,उसकी कथाभी सुनते हैं और सिंहस्थमे नाशिकादि तीर्थों में यात्राका मेलाभी भरते हैं। इसी प्रकार वर्तमानिक जैन समाजमेंभी मुहूर्त्तवाले कार्य अधिकमहीनेमें नहीं करते हैं. मगर बिना मुहूर्त्तवाले पर्युषणापर्वादि धार्मिक कार्य करनेमें कोई तरहकाभी हरजा नहीं है। अधिक महीनेके३०दिनोंको मुहूर्तादि कार्योमे नहीं लेते,परंतु बिना मुहूर्त्तके (दिवसोंकी संख्यासे प्रतिबद्ध) धार्मिक कार्यों में लेते हैं । बस ! इसका मर्म सरल दिलसे न्यायपूर्वक समझ लिया जावे तो अधिकमहीने में पर्युषणापर्वादि धर्म कार्य नहीं हो सकते हैं. ऐसा एकांत आग्रहका झूठा वहेम आपसेही निकल सकता है. इसका विशेष निर्णय इस ग्रंथको वांचने वाले तत्वज्ञ विवेकी सजन स्वयं कर सकेंगे। २-यह बे समझ है, या हठाग्रह है। __ अधिक महीनेके अभावमें ५० दिने भाद्रपदमें पर्युषणा करना लिखाहै सो५० दिनके अंदर करनेवाले आराधक होते हैं ऊपरांत करनेवाले तो विराधक होतेहैं इसलिये५०वें दिनकी रात्रिकोभी किसीप्रकारसेभी उल्लंघन करना नहीं कल्पता है. यह बात जैन समाजमें प्रसिद्ध ही है । जिसपरभी सिर्फ भाद्रपद शब्दमात्रकोही पकडकर धर्तमानिक दो श्रावण होनेपरभी भाद्रपदमें पर्युषणा करनेका आग्रह करतेहैं, मगर उसमें ८० दिन होनेसे शास्त्रविरुद्ध होता है, इसका विचार कुछभी करते नहीं हैं। औरभीइसीतरहसे पर्युषणाक पिछाडीभी हमेशा०दिन रखने का एकांत आग्रह करते हैं, मगर ७० दिनका नियम अधिक महीने के अ. भावसंबंधीहै, और अधिकमहीना होवे तब तो निशीथचूर्णि, बृह. स्कल्पचूर्णि,स्थानांगसूत्रवृत्ति और कल्पसूत्रकी टीकाओं में १०० दिन रहनेका कहा है । इसलिये ७० दिन संबंधी या १०० दिन संबंधी यथा अवसर दोनों बाते आत्मार्थियोंको मान्य करने योग्य है, जिस. परभी १०० दिन संबंधी शास्त्रप्रमाणाको छोडकर सिर्फ ७० दिनके शब्द मात्रको आगेकरके १०० दिनकी जगहभी ७० दिन रहनेका आग्रहकरतेहैं.इसलिये ऊपरकी दोनों बातों संबंधी शास्त्रीय अपेक्षाकी यह बे समझ है, या समझने परभी हठाग्रह है। इसका विशेष विचार तत्त्वज्ञ पाठकगणको करना चाहिये. For Private And Personal
SR No.020134
Book TitleBruhat Paryushananirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar Maharaj
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages585
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size10 MB
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