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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ३ ३ J [३३] विषयांतर होनेसे सर्वथा शास्त्रविरुद्धहै और व्यवहारसेभी प्रत्यक्ष अनुचितहै,इसबातको विशेष तत्त्वज्ञ पाठकजन स्वयंविचार लेवेगे । ३५ - लौकिक श्रावणादि अधिक महीनोंकी तरह क्षयमहीनेभी मान्यकरने योग्य हैं या नहीं? पर्युषणापर्वादि धार्मिककार्योंके करनेका भेदसमझे बिनाही अ. धिकमहीनेके३०दिनों में चौमासीव पर्युषणादिपर्वकार्य नहींकरनेका कितनेक लोगआग्रह करतेहैं,मगर कभी कभी श्रावणादि अधिकमही. नेवाले वर्षमें कार्तिकादि क्षयमासभी बीच में आते हैं, तबतो कार्तिक महीनेसंबंधी श्रीवीरप्रभुके निर्वाण कल्याणकका तप,दीवालीका पर्व, श्रीगौतमस्वामीके केवलज्ञान उत्पन्न होनेका महोत्सव,शानपंचमीका आराधन,चौमासी प्रतिक्रमण व कार्तिक पूर्णिमाका उच्छव वगैरह सर्वकार्य तो उसी क्षयकार्तिकमास मेंही करते हैं और लौकिकमें अ. धिकमहीना या क्षयमहीना दोनों बरोबरही मानेहैं । जिसपरभी क्षय मासमें दीवालीपर्वादि धर्मकार्य करते हैं । और अधिक महीनेमें पर्यु। षणापर्वादि धर्मकार्य नहीं करनेका कहते हैं । यहतो प्रत्यक्षमेही पक्ष पातका झूठा आग्रहहीहै. सो आत्मार्थियोंको तो करनायोग्य नहीं है। इसलिये अधिकमहीनेमें और क्षयमहीनेमेभी धर्मकार्य करने उचित हैं, इनमें कोईभी बाधा नहीं आसकती. इस बातकोभी विवेकीतत्वज्ञ पाठकगण स्वयं विचार लेवेगें। ३६-वार्षिक क्षामणे या प्राणियोंके कर्मबंधन व आयु प्रमाणकी स्थिति; किस २ संवत्सरकी अपेक्षासे मानते हैं? जैनशास्त्रोंमें पांच प्रकारके संवत्सर मानेहैं, जिसमें नक्षत्रोंकी चालके प्रमाणसे ३२७ दिनोंका नक्षत्र संवत्सर मानतेहैं । चंद्रकी चालके प्रमाणसे ३५४ दिनोंका चंद्रसंवत्सर मानते हैं । फलफूलादिक होने में कारणभूत ऋतु प्रतिबद्ध ३६० दिनोंका ऋतुसंवत्सर मा. नतेहैं । तथा जब अधिकमहीनाहोवे तब१३महीनोंके ३८३दिनोंका अ. भिवर्द्धित संवत्सर मानतेहैं । और सूर्यके दक्षिणायन व उत्तरायनके प्रमाणसे ३६६ दिनोंका सूर्य संवत्सर मानतेहैं । और पांच सूर्यसंव स्लरोंके प्रमाणसेही१८३०दिनोंका एक युग मानतेहैं। इसी एक युगके १८३० दिनोंका प्रमाण पांचोही प्रकारके संवत्सरोके हिसाबसे मिल नेकेलियेही, एक युगमें दो चंद्रमास बढते हैं,सात नक्षत्रमास बढते हैं, और एक ऋतुमास बढताहै,तब सब मिलकर१८३०दिनोंका एक For Private And Personal
SR No.020134
Book TitleBruhat Paryushananirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar Maharaj
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages585
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size10 MB
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