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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [२३] महीने वार्षिक कार्य होनेका दोष बतलाकर, १२ महीने वार्षिककार्य होनेकाठहरानेकेलिये अधिकमहीनको बीचमेसे छोडदेना अनुचित है, २३ - पर्युषणा संबंधी कल्पसूत्रका पाठ वार्षिक कार्योंके लिये है, या केवल वर्षास्थितिके लियेही है ? कल्पसूत्रका पर्युषणा संबंधी पाठ वर्षास्थितिके साथही वार्षिक कार्योकेलियेभी है, जिसपरभी उसको सिर्फ वर्षास्थितिरूप ठहराकर वार्षिककार्य निषेध करते हैं, वो गंभीर आशयवाले अनेकार्थयुक्त आगमपाठके अर्थको उत्थापनकरनेवालेबनतेहैं.जैसे"णमो अरिहं ताणं " पदके अर्थमं कर्मशत्रुको जितनेवाले अरिहंतभगवानको नमस्कार करनेका अर्थ अनादिसिद्धहै, जिसपरभी कर्मशत्रुके अर्थको. नहीं माननेवालेको अज्ञानी समझा जाताहै तैसेही कल्पसूत्रादिके५० दिने पर्युषणाकरनेसंबंधीपाठों में वार्षिक कार्यकरनेका अर्थतो अनादिसिद्धहै, जिसपरभी ५० दिने वार्षिक कार्योंको नहीं मानने वालोको अज्ञानी या हठवादी समझने चाहिये। २४ -भगवान् किसीप्रकारकेभी पर्युषणा करतेथे या नहीं? उग्रविहारी जिनकल्पीमुनियोंके तथा स्थिविर कल्पीमुनियोके आचारमें बहुतभेदहै,और भगवान्तो अनंतशक्तियुक्त कल्पातित हैं. इसलिये भगवान्के आचार तो विशेष भेद है तो भी वर्षाऋतु व र्षास्थितिरूप पर्युषणा तो सर्वकोईकरतेहैं और स्थिविर कल्पी मुनियोके तो वर्षास्थितिके साथही चौमासी व वार्षिकपर्वके कार्य करने घगैरहका अधिकार प्रसिद्ध ही है । जिसपरभी कल्पसूत्रमें पर्युषणा शब्दमात्रको देखकर अतीव गहनाशयवाले सूत्रार्थके भावार्थको गुरुः गम्यतासे समझे बिना भगवान्कोभी वार्षिक प्रतिक्रमणादिकरनेवाले ठहराने, या ५० दिनकी पर्युषणाको वार्षिक कार्योरहित ठहरानी, सो अज्ञानता है. इसकोभी विवेकीजन स्वयं विचार सकते हैं. २५-पर्युषणासंबंधी सामान्य व विशेषशास्त्र कौन २ हैं ? देखो-- जिसशास्त्रमें मुख्यतासे एक विषयको विशेषरूपसे खुलासाके साथ कथन किया होवे, उसको विशेष शास्त्र कहते हैं। और जिसशास्त्रमें थोडा२ बहुत बातोका कथनहोवे,उसको सामान्य शास्त्रकहतेहैं । यद्यपि यथा अवसर दोनोशास्त्रमान्यहै,मगर सामान्यशास्त्रसे विशेषशास्त्र ज्यादे अधिक बलवान होताहै.इसलिये मुख्यतासे विशेष शास्त्रकी बात अंगीकार करने के समया सामान्य शास्त्रकी बात For Private And Personal
SR No.020134
Book TitleBruhat Paryushananirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar Maharaj
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages585
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size10 MB
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