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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [२९] ३०- जब अधिकमहीना होवे तब तेरह महीनोंके संवच्छरी क्षामणों संबंधी खुलासा. जैसे-इन्हीं भूमिकाके पृष्ठ २२ वें के मध्यमें २२ वे नंबरके लेख मुजर वार्षिक कार्य १२महीनेभी होवे, और जब महीना बढे तब तेरह महीनेभी होवें । तैसेही संवच्छरी क्षामणेभी १२ महीनेभी होवें और जब महीना बढे तब तेरह महीनेभी होवे,देखो-चंद्रप्रज्ञप्तिसूत्रवृ. त्ति, सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्रवृत्ति, जंबूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रवृत्ति, प्रवचनसारोद्धारसूत्रवृत्ति, ज्योतिष् करंडप यत्रवृत्ति, निशीथचूर्णि वगैरह अनेक प्रा. चीन शास्त्रामभी, जब महीना बढे तब उस वर्षके १३महीनोंके २६ पक्ष खुलासा पूर्वक लिखे हैं. इसलिये १३ महीनोंके २६ पक्षोंके सं. वच्छरी में क्षामणे करने का ऊपर मुजब अनेक प्राचीनशास्त्रानुसारहै. जिसपरभी कोई कहेगा, कि-ऊन शास्त्रोम तो १३ महीनोंके २६ पक्षोके संवच्छरीमें क्षामणकरनेका नदीलिखा. मगर ऐसा कहनेवालोंको अ. तीव गहनाशयवाले शास्त्रों के भावार्थको समझमें नहीं आया मालूम होता है, क्योकि-देखा-उन शास्त्राम, जैसे- पक्षका, चौमासेका, व वर्षका गणितसे जो जो प्रमाण बतलाया है, तैसेही उन्हीं शास्त्रोंके उन्हीं प्रमाण मुजब, पाक्षिक, चौमासी व वार्षिक पादि कार्य करनेमें आते हैं, इसलिये जैसे-जिसवर्ष में १२ महीनोंके २४ पक्ष होवे, उसी वर्ष में १२ महीनोंके २४ पक्षोंके संवच्छरी प्रतिक्रमण में क्षामणे करने में आते हैं । तैसेही उसी मुजब जब जिस वर्षमें अधिकमही ना होनेसे१३महीनोंके २६पक्ष होवे; तब उस वर्ष में १३ महीनोंके २६ पक्षाके संवच्छरी प्रतिक्रमणमें क्षामणे करने में आते हैं. इसलिये उन शास्त्रोम १३ महीनोंके क्षामणे नहींलिखे, ऐसा कहना प्रत्यक्ष मिथ्या होनले आज्ञानताका कारण है। औरभी देखिये आवश्यक वृहद्वृत्ति वगैरह प्राचीन शास्त्रों में भी जहां जहां वार्षिक प्रतिक्रमण का अधिकार आया है, वहां वहां भी 'संवच्छर' शब्द लिखा है सो संवच्छर शब्द के १२ महीनोंके २४ पक्ष, व १३ महानाके २६ पक्ष, ऐसे दोनों अर्थ आगमोमें प्रसिद्धही हैं, इसलिये १२ महीनोंके २४ पक्षका अर्थ मान्य करके क्षामणों में कहना, और १३ महीना के २६ पक्षका अर्थ मान्य नहीं करना व क्षा. मणोंमभी नहीं कहना, यह तो प्रत्यक्ष नेही आगमार्थके उत्थापनका आग्रह करना सर्वथा अनुचित्त है, इसलिये दोनों प्रकारके अर्थ मा For Private And Personal
SR No.020134
Book TitleBruhat Paryushananirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar Maharaj
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages585
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size10 MB
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