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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ८ ] यथा " साध्वाश्रयंगत्वा साधून्नमस्कृत्य सामायिकं करोति, तत्सूत्र करेमिभंते! सामाइयं सावजं जोगं पञ्चख्खामि जावसाहू पजुवासामि, दुविहं तिविहेणं, मणेणं वायाए कारणं, न करेमि न कारवेमि, तस्स भंते पडिक्कमामि, निंदामि, गरिहामि, अप्पाणं वोसिरामिति, एवं कृतसामायिकं इर्यापथिक्याप्रतिक्रामति, पश्चादागमनमालोच्य यथा ज्येष्ठमाचार्यादीत्वंदते, पुनरपि गुरु वंदित्वा प्रत्युपेक्षितासने निविष्टः शृणोति पठति पृच्छति वा " इत्यादि इनपाठ भी उपाश्रयमें जाकर साधुमहाराजको वंदना करके पहिले करेमिभंतेका पाठउच्चारण किये बाद पीछेसे इरियावहीकर के अनुक्रमसे वडील आचार्यादिकौको वंदनाकर फिर शास्त्र सुने, वांचे या धर्म चर्चा की बातें गुरुसे पूछता रहे. ऐसा खुलासा लिखा है. ४- श्री लक्ष्मीतिलक सूरिजीकृत श्रावक धर्म प्रकरण वृत्तिका पाठभी यहां पर बतलाता हूं, सो देखो " " चैत्यालये विधि चैत्ये, स्वनिशांते स्वगृहे, साधुसमिपे, पौषो-ज्ञानादीनां धियते - अस्मिन्निति पौषधं पर्वानुष्ठानं, उपलक्षणत्वा सर्व धर्मानुष्ठानार्थ शालागृह; पौषधशाला तत्र वा, तत् समायिकं कार्य श्राभ्धैः सदा नोभयसंध्यमेवेत्यर्थः । कथं तद्विधिना इत्याहखमासमणं दाउं, इच्छाकारेण संदिस्सह भगवन् सामाइय मुहप तिं पडिले मिति भणियं, बीयखमासणपुव्वं सामाइयं ठावित्ति, बुत्तुं· स्वमासमण दाणपुब्वं अध्यावणगत्तो पंच मंगलं कढिता ' करेमिभं ते सामाइयं इच्चाइ सामाइय सुतंभणइ, पच्छा इरियंपडिक्कमइ, इत्यादि देखिये इस प्राचीन पाठ में भी मंदिर में, अपने गृह में, साधुपा स उपाश्रयमें, अथवा पौषधशाला में, जब संसारिक कार्योंसे निवृति होवे तब किसीभी समय में सामायिक करनेका बतलाया है, सो प हिले स्वमामणसे आज्ञा लेकर सामायिक मुहपतिकापडिलेहण करके फिरभी दो खमासमणले सामायिक संदिसाहणेका तथा सामायिक ठाणेका आदेशलेकर विनयसहित करेमि भंतेका पाठ उच्चारण कर के पीछेसे इरियावही करनेका खुलासापूर्वक स्पष्ठ बतलाया है । ५- इसीही तरहसे श्री हरिभद्रसूरिजीने आवश्यक बृहद्वत्ति में, श्रीनवांगीवृत्तिकार अभयदेवसूरिजीने पंचाशकवृत्तिमें, श्रीहेमचंद्रा वाजीने योगशास्त्रवृत्ति में इत्यादि अनेक प्रभावक प्राचीन आचार्यौअनेक शास्त्रों में प्रथम करेमिका उच्चारण किये बाद पीछे द्वार पावही करनेका खुलासा पूर्वक स्पष्ट बतलाया है । For Private And Personal
SR No.020134
Book TitleBruhat Paryushananirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar Maharaj
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages585
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size10 MB
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