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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [68] 2 ६- " पयमख्खरंपि इकं, जो न रोएइ सुत्तनिद्दिहं । सेसं रोअंतो विहु मिच्छाद्दिट्टी जमालिव्व ॥१॥" इत्यादि शास्त्रीय प्रमाणके इस वाक्य से सर्वशास्त्रों की बातोंपर श्रद्धा रखनेवालाभी यदि शास्त्रोंके एक पद या अक्षरमात्रपरभी अश्रद्धाकरे, तो उसको जमालिकीतरह मिथ्या दृष्टि समझना चाहिये । अब इस जगह श्रीजिनाज्ञाके आराधक आत्मार्थी सज्जनोंको विचार करना चाहिये, कि - श्रीहरिभद्र सूरिजी नवांगीवृत्तिकार अभयदेवसूरिजी, हेमचंद्राचार्यजी, लक्ष्मीतिलकसुरिजी, देवेंद्रसूरिजी वगैरह महापुरुषोंके कथन मुजब आव are बृहद्वृत्ति वगैरह प्रामाणिक व प्राचीन शास्त्रोंके पाठोंसे श्रावकके सामायिक में प्रथम करेमिभंते पीछे इरियावही करने संबंधी जिनाशानुसार सत्य बातपर श्रद्धा नहीं रखने वाले, तथा इस सत्य बातकी प्ररूपणाभी नहीं करनेवाले, और उसमुजब श्रावको को भीनहीं करवानेवाले, व इससे सर्वथाविपरीत प्रथमइरियावही पीछे करेमि - भंते करवाने का आग्रह करनेवालोंको ऊपर के शास्त्रवाक्य मुजब जिनाज्ञाके आराधक आत्मार्थी सम्यग्दृष्टि कैसे कह सकते हैं, सो आपने गच्छके पक्षपातका दृष्टिरागको और परंपरा के आग्रहको छोड़कर तश्व दृष्टिले सत्यशोधक पाठकगणको खूब विचार करना चाहिये । ७- ऊपर मुजब सत्यबातको न्यायरत्नजीनें 'खरतर गच्छ समीक्षा' में सर्वथा उडा दिया है, और इनसत्य बातकेसर्वथा विरुद्ध होकर सामायिक करनेमें प्रथम इरियावही किये बाद पीछेसे करेमिभंतेका उच्चारणकरने का ठहरानेके लिये शास्त्रोंके आगे पीछेके संबंधवाले पाठोको छोडकर बिना संबंधवाले अधूरे २ ( थोडे २) पाठ लिखकर अपनी मति कल्पना मुजब खोटे २ अर्थ करके व्यर्थही उत्सूत्रप्ररूपणासे उन्मार्गको पुष्ट किया है, उसकाभी यहां पर पाठकगणको निसंदेह होने के लिये प्रत्यक्ष प्रमाणसे थोडासा नमूना बतलाता हूं :८- श्रीमहानिशीथसूत्र के तीसरे अध्ययन में उपधान करने संबंधी चैत्यवंदन करनेकेलिये जो पाठहै, सो पहिले दिखलाता हूं, यथा " असुहकम्प्रक्वयट्ठा, किंचि आयहियं चिइवंदणाई अणूट्ठिइझा, तयात्तयडे चेव उबउत्ते से भवेजा, जयाणं से तयठ्ठे उवडते भबेजा, तथा तस्सणं परममेगचित्त समाही हवेझ्झा, तयाचेव सब्व जगजीवपाणभूयसत्ताणं जहिठ्ठफलसंपत्ती भवेज्भा, ता गोयमा णंअपडिक्कंताए इरियावहियाए नकण्पइ चेवकाऊं किंचिइवंदणं सजायझाणाइयंकाउं, इट्टफला सायमभिकंखुगाणं, एएणं भट्ठेणं गोय १२ For Private And Personal
SR No.020134
Book TitleBruhat Paryushananirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar Maharaj
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages585
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size10 MB
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