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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ४३२ ] लेखेको प्रगट करके अपनी पूर्ण मूर्खता प्रगट करी और पर्युषणा, सामायिक, कल्याणक, वगैरह बातोंका झगड़ा बढाया है ( जिसका निर्णय तो इस ग्रन्थके पढ़नेसे मालम हो सकेगा ) इसलिये जैनपत्रवाले आठवें महाशयको जो संसारवृद्धिसे दुर्गतिमें परिभ्रमणका भय होवे तो उत्सूत्र भाष. णांका मिथ्या दुष्कृत देकर श्रीदनर्विध संघ ममक्ष उसीकी आलोचन लेवे तथा फिर कभन. डन मण्डन करके दूमरों की निन्दासे गच्छका झगड़ा न उठावे और असत्यको छोडकर सत्यको ग्रहण करे नहीं तो पक्षपातसे उत्सत्रभाषणके विपाक तो भोगे बिना कदापि नहीं छुटेंगे। और मैरेको बड़ेही खेदके साथ बहुतही लाचार हो करके लिखना पड़ता है कि-अधिक मासके ३० दिनांकी गिनती निषेध करनेवाले उत्सत्र भाषक मिथ्या हठग्राही अभिनिवेशिक मिथ्यात्वियोंकी विवेक बुद्धि कैसी नष्ट हो गई है से पूर्वापरका विचार किये बिनाही अधिक मासके ३० दिनों में सर्वकार्य करते भी पक्षपातके आग्रहसे गहरीह प्रवाहकी तरह मिथ्यात्वको अन्ध परम्परासे एक एककी देखादेखी तात्पर्यार्थके उपयोग शून्य होकरके उसीकोही पकड़कर उसीकी पुष्टि करते हैं परन्तु श्रीजिनाज्ञाका उत्थापन करके बाल जीवोंको मिथ्यात्व में फंसानेसे अपनी आत्मघातका कुछ भी भय नहीं करते हैं क्योंकि पञ्चाङ्गी प्रमाण पूर्वक और युक्ति सहित श्रीजिनेश्वर भगवानकी आज्ञाके आराधक सबी आत्मार्थी जैनाचार्य वगैरह अधिक मासके दिनोंकी गिनती प्रमाण करकेही प्राचीन कालमें पूर्वधरादि महाराज भी पर्युषणा करते थे तथा वर्तमानमेंभी For Private And Personal
SR No.020134
Book TitleBruhat Paryushananirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar Maharaj
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages585
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size10 MB
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