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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ २६२ ] फन्दसें जबरदस्ति सूर्योदयको पर्वरूप प्रथम चतुर्दशीको पर्वरूप नही मानते हुए, अपर्वरूप त्रयोदशी बनाकर के संख्याते, असंख्याते, अनन्ते जीवोंकी हानी तथा अब्रह्मचर्य्यादि पञ्चाश्रव सेवनका और सब संसार व्यवहारके कायोंसे आरम्भादि होनेका कारणमें अधोगतिके रस्ता की खर्चीरूप कायोंमें आपलोग कटीबद्ध तैयार हो और अपने संयमरूप जीवितव्यके नष्ट होनेका और मिथ्यात्वी बननेका कुछ भी भय नही करते हो इस लिये यह भी उत्सूत्र भाषण है । ११ सतरहना भी इसीही तरहसें लौकिक पञ्चाङ्गमें दो दूज, दो पञ्चमी, दो अष्टमी, दो एकादशी, वगैरह सूर्योदयको पर्वतिथियां होती है जिसको बदल कर, अपर्वकी - दो एकम, दो चतुर्थी, दो सप्तमी, दो दशमी वगैरह करके मानते हो सो भी उत्सूत्र भाषण है । १८ अठारहना भी इसीही तरहसे विशेष करके लौकिक पञ्चाङ्गमें संपूर्ण चतुर्दशी पर्वरूप तिथि होती है और दो पूर्णिमा तथा दो अनावस्या भी होती है जिसको तोडमोड़ करके संपूर्ण चतुर्दशीकी, त्रयोदशी और दो पूर्णिमाकी तथा दो अमावस्याकी भी दो त्रयोदशी कोइ भी जैनशास्त्रोंके प्रमाण बिना अपनी कपोल कल्पनायें बना लेते हो सो भी उत्स भाषण हैं । १९ एगुनवीशमा - लौकिक पञ्चाङ्गमें जब कोई कोई वख्त दो पूर्णिमा अथवा दो अमावस्या होती है उसीमें चन्द्र अथवा सर्य्यका ग्रहण प्रथम पूर्णिमाको अथवा प्रथम अमावस्याको होता है जिसको सब दुनिया मानती है और For Private And Personal
SR No.020134
Book TitleBruhat Paryushananirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar Maharaj
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages585
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size10 MB
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