SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 562
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ४३० ] की कुयुक्तियों वाला और श्रीजिनाज्ञा मुजब वर्त्तनेवालोंको जूठी कल्पनासे दूषण लगाके अनन्त संसारका हेतु भूत मिथ्यात्यको बढ़ानेवाला पर्युषणा विचार के लेख में अपना नाम प्रगट करते लज्जा आवे तो निज शिष्यविद्या विजयजीका नाम लिख देवें तोभी कुछ विशेष आश्चर्य नहीं है सो पाठकवर्ग स्वयं विचार लेवेंगे, -- • और काशीनिवासी नातवें महाशयजी जैनतत्व दिग्दर्शन, आत्मोन्नति दिग्दर्शन, जैनशिक्षादिग्दर्शन वगैरह छोटे छोटे लेखोंको तो अपने नामसे प्रगट करते हैं तथा विद्याविजयजी भी अपने गुरुजीका लम्बा चौड़ा नाम समेत जैनपत्र में अपना लेख प्रगट करते हैं और छोटी छोटी पुस्तकें भी श्रीयशोविजयोकी पाठशाला के नामसे प्रगट करने में आती है परन्तु पर्युषणा विचार के लेखमें न तो सातवें महाशयजीका नाम लिखा तथा विद्याविजयजीने भी अपने गुरुजीका नाम भी नहीं लिखा और अपना निवास ठिकाना भी नहीं लिखा और श्रीयशोविजयजीकी पाठशालाका नाम भी नहीं लिखा इसपर भी बुद्धिजन विचार करें तो स्वयं मालूम हो सकेगा कि सातवें महाशयजीने दुनिया में अपनी निन्दाकी शर्म के मारे गुपसुप प्रगट कराया है क्योंकि इतने विद्वान् ऐसे प्रसिद्ध आदमी होकर के भी गच्छके पक्षपातसे ऐसा अनर्थ क्यों किया इसका भेद न खुलने के वास्ते पाठ शालाका तथा पाठशाला के उत्पादकका नाम नहीं लिखा है परन्तु विवेकी बुद्धिजनों के आगे तो ऐसी धूर्तता नहीं छुप सकती है, -- For Private And Personal
SR No.020134
Book TitleBruhat Paryushananirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar Maharaj
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages585
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy