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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [९५] करेमिभंतेपीछे इरियावहीकरनेकाखुलासालिखाहै,जिसपरभीचूर्णिके लिने सत्य पाठको छुपा देना, और चूर्णिकारने रात्रिपौषध वालोंके लिये ११ वा पौषधव्रत संबंधी इरियावही लिखी है, उसको चूर्णिकारके अभिप्राय विरुद्ध होकर ९ वे सामायिक व्रतमें भोले जीवोंको दिखलाना,लो मायावृत्तिरूपप्रपंचसे प्रत्यक्षझूठबोलकर शास्त्रविरुद्ध प्ररूपणा करना संसारवृद्धिका कारण होनेसे आत्मार्थियोंको कदापि योग्यनहींहै.यहांपर लडकोके खेल जैसी प्रपंचताकी बातें नहीं हैं, किंतु सर्वज्ञ शासनकी बातें हैं, इसलिये एकही ग्रंथमें,एकही वि. षयमै, एकही पूर्वाचार्यको पूर्वापर विरोधी विसंवादी कथन करने वाले ठहराना, सो बडी अज्ञानताहै.अथवा जान बुझकर पूर्वाचार्योकी आशातनाका और शास्त्रविरुद्ध प्ररूपणाका भय न रखकर इस लोककी पूजा मानताकेलिये अपना झूठा आग्रह स्थापन करनेकेलिये व्यर्थही एसी शास्त्रविरुद्ध प्ररूपणा करते होंगे, सो तो श्रीज्ञानीजी महाराज जाने. हम इस वातमे विशेष कुछभी नहीं कहसकते हैं । २३-इसीतरहसे सामायिक प्रथम इरियावही पीछे करेमिभंते कह. नेका स्थापनकरनेवाले न्यायरत्नजीआदिको पूर्वाचार्योंको विसंवा. दीके झूठे दोषलगानेके हेतृभूत तथा अनेक शास्त्रोके विरुद्धप्ररूपणा करनेरूप अनेक दोषोंके भागी होनापडता है,और पूर्वाचार्योंको झूठा दोष लगानेकी आशातनासे तथा शास्त्रकारोंके अभिप्रायविरुद्धप्ररूपणा करनेसे आपने व अपने पक्षके आग्रहकरनेवाले बालजीवोंकेभी संसारवृद्धिका कारणरूप महान् अनर्थ होता है, यही सर्व बातें न्या. यरत्नजीने 'खरतरगच्छ समीक्षा' में सामायिकमें प्रथम करेमिभंते पीछे इरियावहीकरनेकी आवश्यक चूर्णि, बृहद्वृत्ति वगैरह शास्त्रानुः सार सत्य बातको निषेध करनेके लिये और प्रथम इरियावही पीछे फरेमिभंते स्थापन करनेके लिये महानिशीथ-दशवैकालिक सूत्रकी टीकाकारवगैरह बहुतशास्त्रकारमहाराजोके अभिप्राय विरुद्ध होकर अधूरे२पाठोसे उलटारसंबंध लगाकर उत्सूत्रप्ररूपणासे बडा अनर्थ किया है, उसका नमूना रूप थोडासा सामायिक संबंधी पाठकगण को निसंदेह होनेकेलिये हमने ऊपरमें इतना लिखाहै. मगर इस प्र. करणका विशेष खुलासा पूर्वक इसीही 'बृहत्पर्युषणा निर्णय' ग्रंथके पृष३०९से३०२नक अच्छी तरह मे छप चुका है, वहांले विशेष जान लेना और “आत्मभ्रमोच्छेदनमातुः" नामा ग्रंथमेभी विस्तारपूर्वक शास्त्रों के पाठोसहित निर्णय हमारी तरफसे छप चुका है, इस लिये For Private And Personal
SR No.020134
Book TitleBruhat Paryushananirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar Maharaj
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages585
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size10 MB
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