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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [९६] यहांपर फिरसे ज्यादे विशेष लिखनेकी कोई जरूरत नहीं हैं। २४-अब सत्यप्रिय पाठकगणसे हमारा इतनाही कहनाहै,कि-महानिशीथसूत्रके उपधान चैत्यवंदनसंबंधी इरियावहीके अधूरे पाठसे,तथा दशवैकालिककी टीकाके साधुओंके स्वाध्याय करनेसंबंधी इरि. यावहीके अधूरे पाठसे,श्रीहरिभद्रसूरिजीमहाराजके अभिप्राय विरुद्ध होकर सामायिकमें प्रथम इरियावही पीछे करेमिभंते स्थापन करतेहैं,और इन्हीं महाराजने जिनाशानुसारही प्रथम करेमिभंते पीछे इरियावही खुलासा पूर्वक आवश्यकसूत्रकी बडी टीकामे लिखा है, उसको निषेध करतेहैं,या उसपर अविश्वास लाकर कुयुक्तियोंसे भो. लेजीवोंकोभी उस बातपर शंकाशील बनातेहैं, वो लोग जिनामा वि. रुद्धहोकर उत्सूत्रप्ररूपणाकरतेहुए अपने सम्यक्त्वकोमालिन करते हैं। २५-और किसीभी प्राचीन पूर्वाचार्यमहाराजनेअपने बनाये किसी भी ग्रंथमें, किसी जगहभी ९ वे सामायिकवतसंबंधी प्रथम इरियावही पीछे करेमिभंते नहींलिखा.मगर खास तपगच्छादि सर्व गच्छोंके सर्वपूर्वाचार्योने प्रथम करेमिभंते पीछे इरियावही स्पष्ट खुलासा पूर्वक लिखा है, इसलिये इस बातमें पाठांतरसे पहिले इरियावहीभी नहीं कह सकते, जिसपरभी पाठांतरके नामसे पहिले इरियावही स्थापन करें सो भी शास्त्रविरुद्ध होनेसे प्रत्यक्ष मिथ्या है. २६- और कितनेक अज्ञानी लोग अपनी मति कल्पनाले कहा ते है, कि-पहिले इरियावही करें तो क्या, और पीछे करें तो भी क्या, किसी तरहसे सामायिक तो करनाहै,ऐसा मिश्र भाषण करने वालेभी सर्वथा शास्त्रविरुद्ध प्ररूपणा करते हैं, उन लोगोंको सामायिकमें प्रथम करेमिभंते कहनेसंबंधी शास्त्रकारोंके गंभीर अभिप्राय. को समझमें नहीं आया मालूम होताहै, नहीं तो ऐसा शास्त्रविरुद्ध मिश्र भाषण कभी नहीं करते. क्योंकि देखो-सर्व शास्त्रों में स्वाध्याय, ध्यान,प्रतिक्रमण,पौषधादिधर्मकार्यों में पहिले इरियावही कहाहै,और सामायिकम करेमिभंते पहिले कहे बाद पीछेले इरियावही करनेका कहा है, सो इसमें गुरुगम्यताका अतीव गंभीरार्थवाला कुछभी रह स्य होना चाहिये, नहीं तो सर्व शास्त्रोंमें महान शासन प्रभावक श्री हरिभद्रमूरिजी, नवांगीवृत्तिकार अभयदेवसूरिजी, कलिकाल स. बज्ञविरुदधारक हेमचंद्राचार्यजीआदिगीतार्थमहाराज प्रथम करेमिभंते पीछे इरियावही कभी नहीं लिखते. इसलिये इनमहाराजोंके गं. भीरआशयको समझेबिना इनसे विरुद्ध प्ररूपणा करना बडी भूलहै. For Private And Personal
SR No.020134
Book TitleBruhat Paryushananirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar Maharaj
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages585
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size10 MB
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