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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir अवलोकन करनेसे असत्यको छोड़कर सत्यको ग्रहण करके मोक्षाभिलाषी जन अपने आत्म कल्याणमें उद्यन करें, एही इस ग्रन्यकारका तथा इस ग्रन्थका मुख्य प्रयोजन है। और इस ग्रन्थका अधिकारी तो वही होगा जो कि अपने गच्छ संबंधी परंपराके पक्षपातका कदाग्रह रहित तथा जिनाज्ञा इच्छक और शास्त्रोक्त शुद्ध व्यवहारको अङ्गीकार करनेवालो सम्य. कत्वधारी मोक्षाभिलाषी, नतु अभिनिवेशिक मिथ्यात्वी बहुलसंसारी गड्डरीह प्रवाही । मङ्गलाचरण और सम्बन्ध चतुष्टय कहे बाद सर्वज्जन पुरुषों को निवेदन करने में आता है कि-वत्तमानकालमें संवत् १९६६ के लौकिक पञ्चाङ्ग में दो श्रावण होनेसे श्री. खरतर गच्छा दिवाले पञ्चाङ्गी प्रमाण पूर्वक तथा श्री पूर्वाचायोंकी आज्ञामुजब आषाढ़ चौमासीसे ५० दिने दूसरे प्रावणमें श्रीपर्युषणपर्वका आराधन करते हैं जिन हैं।को प्रथम श्रीवल्लभविजयजीने अपनी मति कल्पनासे कोई भी शास्त्रके प्रमाण विना जैनपत्राद्वारा आज्ञा भङ्गका दूपण उगाकरके कुसंपके रक्षका बीज लगाया तथा प्रत्यक्ष श्रीजिना ज्ञा विरुद्ध दो प्रावण होते भी भाद्रपद में यावत् ८० दिने प्रोपर्युषण पर्वका आराधन करके भी मायावृत्ति से आप आज्ञाके अ.राधक बनना चाहा, तथा उन्हींकाही अनुकरण करके दूसरे काशी से श्रीधर्मविजयजीने अपने शिष्य विद्याविजयजीके नामसे 'पर्यषणा विचार' का लेख प्रगट कराया जिसमें भी सूत्रा भाषणांका तथा कुयुक्तियोंका संग्रह करके अभिनिवेशिक मिथ्यात्व ते शास्त्रोंके आगे पीछे के पाठोंको छोड़करके विना सम्बन्धके अधूरे अधूरे पाठ लिखकर शास्त्रकार महार.जेांके For Private And Personal
SR No.020134
Book TitleBruhat Paryushananirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar Maharaj
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages585
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size10 MB
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