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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir । ३३७ । और सातवें महाशयजी श्रीधर्मविजयजीकी तरफसे 'पर्युषणा विचार'नामा छोटीसी १० पृष्ठकी पुस्तक प्रगट हुई है जिसमें पञ्चाङ्गीके अनेक शास्त्रोंके विरुद्ध तथा श्रीतीर्थङ्कर गणधरादि महाराजांकी और खास अपनेही गच्छके पूर्वा चायौंकी आशातना कारक और सत्य बातका निषेध करके अपने गच्छ कदाग्रहकी मिथ्या कल्पित बातको स्थापन करनेके लिये श्रीजैनशास्त्रोंके अतीव गहनाशयको समझे बिना शास्त्रकार महाराजोंके विरुद्धार्थमें बिना सम्बन्धके और अधूरे अधूरे पाठ दिखाके उलटे तात्पर्य्यसे उत्सूत्र भाषण रूप अनेक कुतों करके अपने पक्षके एकान्त आग्रहसें दूसरोंको मिथ्या दूषण लगाके भोले जीवोंको मिथ्यात्वके भ्रममें गेरे है और अपनी विद्वत्ताकी हासी कराई है इमलिये अब में इस जगह भव्य जीवोंके मिथ्या त्वका भ्रम दूर होनेसे शुद्ध श्रद्धानरूपी सम्यक्त्वकी प्राप्तिके उपगारके लिये और विलाके अभिमानसे उत्सूत्र भाषण करनेवालोंको हित शिक्षाके लिये पर्युषणा विचारके लेखकी समीक्षा करके दिखाता हूं:___यद्यपि पर्युषणा विचारको पुस्तकमें लेखक नाम विद्या विजयजीका छपा है परन्तु यह ग्रन्थकार उसीकी समीक्षा उन्होंके गुरुजी श्रीधर्मविजयजीके नामसे लिखता हैं जि. सका कारण इमीही ग्रन्थके पृष्ठ ६७.६८ में छपगया है और आगे भी छपेगा इसलिये इस ग्रन्थकारको सातवें महाशयजी श्रीधर्मविजयजीके नाममेही समीक्षा लिखनी युक्त है सोही लिखता है जिसमें प्रथमही पर्युषणा विचारके लेखकी आदिमें लिखा है कि ( आत्मकल्याणाभिलाषी भव्यजीव ४B For Private And Personal
SR No.020134
Book TitleBruhat Paryushananirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar Maharaj
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages585
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size10 MB
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