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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [७५] और विशेष सूचनाये विज्ञापन, नंबर ६ से समझ लीजिये. और नि. यमभी जो आपकी इच्छा हो सो प्रतिज्ञापत्रके साथ१५ दिनके भीतर प्रकट करीये, आनंदसागरजी, विजयधर्मसूरिजी, विद्याविजयजी व न्यायविजयजीकी तरह आडी आडी बातें निकालकर शास्त्रार्थ क. रना मंजूर न करोगे.तो-आपकीभी हार समझी जावेगी. अथवा श्री. कच्छी जैन एसोसीयनकी विनतीके अनुसार, व मैरे विज्ञापनोंके अ. नुसार यदि आपको मुंबई में ठहरकर सभामें शास्त्रार्थ करनेमें अनुकूल लता न होवे, तो लीजिये चलिये- लेख द्वाराही सही, मगर विज्ञापन नंबर ६ मुजब प्रतिज्ञा वगैरह नियमोंके साथ उत्तर दीजिये. देखो न्यायरत्नजी मैरे बनाये लघु पर्युषणानिर्णय के प्रथम अंक' के सब लेखाका न्यायसे पूरेपूरा उत्तर देनेकी आपमें ताकत नहीं है, य. दि होती तो उसके पृष्ठ ३-४-५-६-७ और १०में अधिकमासमें सूर्यचार न होवे, वनस्पति न फूले, वगेरह सुबोधिकाकी ११ बातोका खु. लासा मैंने लिखाथा. उन सबको लिखकर अनुक्रमसे पूरा उत्तर क्यों न दिया,यदि भूल गये हो, तो अभीही देवो । और पृष्ठ १७ के अंतके पाठका खुलासाभी साथही करो ॥ और मैने 'लघु पर्युषणा निर्णय' में निशीथचूर्णि और दशवैकालिक बृहवृत्तिके पाठसे अधिकमास को कालचूला कहकरकेभी दिनोंकी गिनतीमें लेनेका सिद्धकर दिखा या है,इसलिये दिनोंकी गिनती निषेध नहीं होसकता,देखो-लघुपर्युः षणानिर्णयके पृष्ठ २४-२५ ॥ और लौकिक शास्त्रानुसारभी अधिक मासको दिनों में गिना है, देखो-लघुपर्युषणानिर्णय के पृष्ठ २८.२९ ॥ और अधिक मासमें मुहूत्तवाले शुभकार्य न होवें,उसी तरह चौमासे. में, सिंहस्थमें, गुरु शुक्रके अस्तमें, पौष चैत्र मलमासमें, क्षयमासमें, वदीपक्षकी १३-१४ और अमावास्या इन तीन क्षीणतिथियोंमें,और वैधृति-गंडांत-व्यतिपात-भद्रा वगैरह कुयोगोंमें; तिथि, वार, नक्षत्र, चंद्रादि बहुत, मास-पक्ष-वर्ष-दिन वगैरह योगोभी मुहूर्त्तवाले शुभकार्य न होवे, देखो-ज्योतिःशास्त्रे "जंभारिति पुरोहिते हरिंगते, सुप्तेमुकुंदेविभौ । जातेधर्मघने धनशफटयोः क्षीणे कुवारस्तिथिः ॥ अस्ते भार्गव जीवयोः कुदिने, मासाधिके वैधृतौ । गंडांते व्यतिपात विष्टिक शुभं, कार्य न कार्य वुधैः ॥ १॥" मगर-दान, शील, तप, भाव, सामायिक, प्रतिक्रमण, पौषध वगैरह धर्मकार्य अधिक मासमे भी होलकते हैं, उसी तरह पर्युषणापर्वभी दिन प्रतिबद्ध होनेसे अधिकमासमें करनेमें कोई बाधा नहीं है । देखो लघुपर्युषणा निर्णयके पृष्ठ For Private And Personal
SR No.020134
Book TitleBruhat Paryushananirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar Maharaj
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages585
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size10 MB
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