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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ १३० ] अवश्यही गिना जाता हैं इस लिये धर्मकायों में और गिनती का प्रमाणमें अधिक मासका शास्त्रानुसार युक्ति पूर्वक प्रमाण करना ही उचित होनेसे आत्मार्थियों को अवश्य ही प्रमाण करना चाहिये। अधिक मास को प्रमाण करना इसमें कोई भी तरहका हठवाद नहीं हैं किन्तु अधिक मास की गिनती निषेध करना सो निःकेवल शास्त्र कारों के विरुद्धार्थमें हैं.--तथापि इन तीनों महाशयोंने बड़े जोरसे अधिक माप्तकी गिनती निषेध किवी तब उपरोक्त समीक्षा मुजेभी अधिक मासकी गिनती करने के सम्बन्ध की करनी पड़ी और आगे फिर भी इन तीनों महाशयोंने अपनी चातुराई अधिक मास को निषेध करने के लिये प्रगट किवी है जिसमें के एक तीसरे महाशय श्री विनयविजयजी कृत श्रीसुखबोधिका वत्तिका पाठ इसही पुस्तक के पृष्ठ ६९।७०1७१ मे छपा था जिसमेका पीछाडीका शेष पाठ रहा था जिसको यहाँ लिखके पीछे इसीकी समीक्षा भी करके दिखाता हु श्रीसुखबोधिकावृत्ति के पृष्ठ १४७ की दूप्तरी पुठी की आदि से पृष्ठ १४८ के प्रथम पुठी की मध्य तक का पाठ नीचे मुजब जानो यथा:---- किं काकेन अक्षितः किं वा तस्मिन्मासे पापं न लगति उत बुभुक्षा न लगति इत्याधु पहस मास्वकीयं ग्रहिलत्वं प्रकटयत स्त्वमपि अधिकमासे सति त्रयोदशषु मासेषु जातेप्वपि साम्वरूरिक क्षामणे, बारसरहं मासाणमित्यादिकं वदनााधिकमार मंगीकरोषि एवं चतुर्भास क्षामणे ऽधिकमास सद्भावेपि, उल्हमासाणमित्यादि पक्षिक क्षामणके. ऽधिक तिथि मवेपि, एनरसण्हं दिवसाणमिति च वषे For Private And Personal
SR No.020134
Book TitleBruhat Paryushananirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar Maharaj
PublisherJain Sangh
Publication Year1922
Total Pages585
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size10 MB
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