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पूर्व पक्ष - अजी आप ऊपरोक्त शास्त्रोंके अनुसार चन्द्र संवत्सरका और अभिवर्द्धित संवस्तरका अर्थ ग्रहण करके चंद्रमें बारह मासादिसें और अभिवर्द्धितमें तेरह मासादिसें. सांवत्सरी में क्षामणा करनेका लिखतेहो परन्तु किसी भी पूर्वाचार्यजीने कोई भी शास्त्र में ऐसा खुलासा क्यों नहीं लिखा हैं ।
उत्तर पक्ष - भो देवानुप्रिय ! तेरेमें श्रीजैनशास्त्रोंके तात्पयर्थको समझने की गुरुगम बिना विवेक बद्धि नहीं है इसलिये बालजीवोंको मिथ्यात्वमें फँसानेके लिये वृथा ही ऐसी कुतर्क करता है क्योंकि जब श्रीतीर्थङ्कर गणधरादि महाराजों ने संवत्सर शब्दके चंद्र और अभिवर्द्धितादि जुड़े जुदे अर्थ कहे हैं जिसमें चन्द्रके बारह मास, चौबीस पक्ष और अभिवर्द्धित तेरह मास, छवोश पक्ष खुलासे कह दिये है, इसलिये पूर्वाचार्यांने संवत्सर शब्दको ही ग्रहण करके व्याख्या करी है और यह तो अल्पबुद्धिवाला भी समझ सकता है कि जब अधिक मासकी गिनती शास्त्रोंमें श्रीतीर्थङ्कर गणधरादि महाराजांने प्रमाण करो है और प्रत्यक्षमें वर्तते हैं इसलिये पापकृत्योंकी आलोचनामें तो जरूर ही अधिक मास गिनतीमें लेना सो तो न्यायकी बात है परन्तु विवेकशून्य हठवादी होगा सो ऐसी कुतर्क करेगा कि - अधिक मासकी आलोचना कहां लिखी है जिसको यही कहना चाहिये कि अधिक मासको गिनती में लेकर फिर आलोचना नहीं करनी कहां लिखी है इसलिये ऐसी वृथा कुतकों के करने से मिथ्यात्व बढ़ाने के सिवाय और कुछ भी लाभ नहीं उठासकेगा, क्योंकि जब अधिक मासकी गिनती मंजूर है तो फिर
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