________________ है। तात्पर्य यह है कि जैसे बीज से उत्पन्न हुआ वृक्ष बीज को उत्पन्न करता है अर्थात् बीज से वृक्ष और वृक्ष से बीज को उत्पन्न होते देखा जाता है, तब इन दोनों में प्रथम किसे कहना या मानना चाहिए? इस के निर्णय में सिवाय "-वे दोनों ही प्रवाह से अनादि हैं। इस की सम्बन्धपरम्परा अनादि है-" यह कहने के और कुछ नहीं कहा जा सकता। इसी प्रकार जीवात्मा के साथ कर्म का जो सम्बन्ध है, उसकी परम्परा भी अनादि है। इस दृष्टि से विचार करने पर कर्मसम्बन्ध को अनादि ही कहना वा मानना होगा। इस विषय में कुछ विचारकों की ओर से यह प्रश्न होता है कि अगर कर्म और आत्मा का सम्बन्ध अनादि है, अनादिकाल से चला आता है तो उस का भविष्य में भी इसी प्रकार प्रवाह रहेगा? तात्पर्य यह है कि जो वस्तु अनादि है, जिस का आदि नहीं है, तो उस का कभी अन्त भी नहीं होगा। और यदि कर्मों को अनादि अनन्त मान लिया जाए अर्थात् कर्म और जीव के सम्बन्ध को आदि और अन्त से शून्य स्वीकार कर लिया जाए तब तो उस का कभी विच्छेद ही नहीं हो सकेगा? इस विषय को समाहित करने के लिए सर्वप्रथम इन पदार्थों के स्वरूप को समझना आवश्यक है। पदार्थ चार तरह के होते हैं-१-अनादि अनन्त, २-अनादि सान्त, ३-सादि अनन्त और ४-सादि सान्त। जिस का न आदि हो और न अन्त हो उसे अनादि अनन्त कहते हैं। जिसका आदि न हो और अन्त हो वह अनादि सान्त, कहलाता है। जिस का आदि हो और अन्त न हो वह सादि अनन्त है, और जिस का आदि भी हो और अन्त भी हो वह सादि सान्त कहलाता है। इन में आत्मा और पुद्गल अनादि अनन्त हैं। आत्मा और कर्मसंयोग अनादि सान्त हैं। मोक्ष सादि अनन्त और घटपट का संयोग सादि सान्त है। आत्मा और कर्म का सम्बन्ध आदि होने पर बीजगत उत्पादक शक्ति की तरह सान्तअन्त वाला है। जैसे बीज में अंकुरोत्पादक शक्ति अनादि है और जब उस को (बीज को) भट्टी में भून दिया जाता है तब वह शक्ति नष्ट हो जाती है। ठीक इसी प्रकार आत्मा के साथ अनादि काल से सम्बद्ध कर्मों को जब जप, तप और ध्यानरूप अग्नि के द्वारा जला दिया जाता है, उन की निर्जरा कर दी जाती है तो कर्ममल से विशुद्ध हुई आत्मा मोक्ष में जा विराजती है। फिर उसका जन्म नहीं होता, वह सदा अपने स्वरूप में ही रमण करती रहती है। एक और उदाहरण लीजिए-देवदत्त नाम के व्यक्ति के पिता, पितामह आदि की पूर्वपरम्परा के आरम्भ का निर्णय सर्वथा अशक्य होने से वह परम्परा अनादि ही रहती है, परन्तु आज उस के संन्यासी हो जाने पर उस परम्परा का अन्त हो जाता है। इसी तरह जीव और कर्म के सम्बन्ध की अनादि परम्परा का विच्छेद भी शास्त्रविहित क्रियानुष्ठान के आचरण से हो श्री विपाक सूत्रम् . . [प्राक्कथन