________________ जलप्रवेश, पर्वतप्रपात, विषभक्षण, अनशन आदि देहदमन किया जाता है वह बालतप है। ६-नामकर्म की शुभनामकर्म और अशुभनामकर्म ये दो मूलप्रकृतियां हैं। इन के बन्धहेतुओं का विवरण निम्नोक्त है १-अशुभनामकर्म के बन्धहेतु-योग की वक्रता और विसंवाद ये अशुभनामकर्म के बन्धहेतु हैं।१-मन, वचन और काया की कुटिलता का नाम योगवक्रता है। कुटिलता का अर्थ है-सोचना कुछ, बोलना कुछ और करना कुछ। २-अन्यथा प्रवृत्ति कराना किंवा दो स्नेहियों के बीच भेद डालना विसंवादन है। २-शुभनामकर्म के बन्धहेतु-इसके विपरीत अर्थात् योग की अवक्रता और अविसंवाद शुभनामकर्म के बन्धहेतु हैं। 'तात्पर्य यह है कि अशुभनामकर्म के सम्बन्ध में जो कुछ कहा गया है उस से उल्टा अर्थात् मन, वचन और काया की सरलता-प्रवृत्ति की एकरूपता तथा संवादन अर्थात् दो के बीच भेद मिटा कर एकता करा देना किंवा उलटे रास्ते जाते हुए को अच्छे रास्ते लगा देना, ये शुभनामकर्म के बन्धहेतु हैं। ८-गोत्रकर्म के नीचगोत्र और उच्चगोत्र ऐसे दो मूलभेद हैं। इनके बन्धहेतुओं का संक्षिप्त परिचय निम्नोक्त है १-नीचगोत्र के बन्धहेतु-परनिन्दा, आत्मप्रशंसा, सद्गुणों का आच्छादन और . असद्गुणों का प्रकाशन ये नीचगोत्र के बन्धहेतु हैं। दूसरे की निन्दा करना परनिन्दा है। निन्दा का अर्थ है सच्चे या झूठे दोषों को दुर्बुद्धि से प्रकट करने की वृत्ति / अपनी बड़ाई करना यह आत्मप्रशंसा है अर्थात् सच्चे या झूठे गुणों को प्रकट करने की जो वृत्ति है वह प्रशंसा है। दूसरों में यदि गुण हों तो उन्हें छिपाना और उन के कहने का प्रसंग पड़ने पर भी द्वेष से उन्हें न कहना, वही दूसरों के सद्गुणों का आच्छादन है। तथा अपने में गुण न होने पर भी उन का प्रदर्शन करना यही निज के असद्गुणों का प्रकाशन कहलाता है। २-उच्चगोत्र के बन्धहेतु-परप्रशंसा, आत्मनिन्दा, असद्गुणोद्भावन, स्वगुणाच्छादन, नम्रप्रवृत्ति और निरभिमानता ये उच्चगोत्रकर्म के बन्धहेतु हैं। दूसरों के गुणों को देखना परप्रशंसा कहा जाता है। अपने दोषों को देखना आत्मनिन्दा है। अपने दुर्गुणों को प्रकट करना असद्गुणोद्भावन है। अपने विद्यमान गुणों को छिपाना स्वगुणाच्छादन है। पूज्य व्यक्तियों के प्रति नम्र वृत्ति धारण करना नम्रवृत्ति है। ज्ञानसम्पत्ति आदि में दूसरे से 1. योगवक्रताविसंवादनं चाशुभस्य नाम्नः। (तत्त्वा० 6 / 31) 2. विपरीतं शुभस्य। (तत्त्वा० 6 / 22) 3. परात्मनिन्दाप्रशंसे सदसद्गुणाच्छादनोद्भावने च नीचैर्गोत्रस्य। (तत्त्वा० 6 / 24) 56 ] श्री विपाक सूत्रम् [प्राक्कथन