________________ ६-स्वयं डरना और दूसरों को डराना। ७-हितकर क्रिया और हितकर आचरण से घृणा करना। ८-९-१०-स्त्रीजाति, पुरुषजाति तथा नपुंसकजाति के योग्य संस्कारों का अभ्यास करना। (5) आयुष्कर्म की नरकायु, तिर्यञ्चायु, मनुष्यायु और देवायु ये चार मूलप्रकृतियांमूल-भेद होती हैं। इन के बन्धहेतुओं का विवरण निम्नोक्त है १-नरकायुष्कर्म के बन्धहेतु-बहुत आरम्भ और बहुत परिग्रह, ये नरकायु के १बन्धहेतु हैं। प्राणियों को दुःख पहुँचे ऐसी कषायपूर्वक प्रवृत्ति करना आरम्भ है। यह वस्तु मेरी है और मैं इसका मालिक हूं, ऐसा संकल्प रखना परिग्रह है। जब आरम्भ और परिग्रह वृत्ति बहुत ही तीव्र हो तथा हिंसा आदि क्रूर कर्मों में सतत प्रवृत्ति हो, दूसरों के धन का अपहरण किया जाए किंवा भोगों में अत्यन्त आसक्ति बनी रहे, तब वे नरकायु के बन्धहेतु होते २-तिर्यंचायुष्कर्म के बन्धहेतु-माया तिर्यञ्चायु का बन्धहेतु है। छलप्रपंच करना किंवा कुटिलभाव रखना माया है। उदाहरणार्थ-धर्मतत्त्व के उपदेश में धर्म के नाम से मिथ्या बातों को मिला कर उनका स्वार्थबुद्धि से प्रचार करना तथा जीवन को शील से दूर रखना आदि सब माया कहलाती है और यही तिर्यञ्चायु के बन्ध का कारण बनती है। ३-मनुष्यायुष्कर्म के बन्धहेतु-अल्प आरम्भ, अल्प परिग्रह, स्वभाव की मृदुता और सरलता ये मनुष्यायु के रेबन्धहेतु हैं। तात्पर्य यह है कि आरम्भवृत्ति तथा परिग्रहवृत्ति को कम करना, स्वभाव से अर्थात् बिना कहे सुने मृदुता वा सरलता का होना ये मनुष्यायुष्कर्म के बन्धहेतु हैं। ...४-देवायुष्कर्म के बन्धहेतु-सरागसंयम, संयमासंयम, अकामनिर्जरा और बालतप ये 4 देवायु के बन्धहेतु हैं। हिंसा, असत्य, चोरी आदि महान् दोषों से विरतिरूप संयम के लेने के बाद भी कषायों का कुछ अंश जब बाक़ी रहता है तब वह सरागसंयम कहलाता है। हिंसाविरति आदि व्रत जब अल्पांशरूप में धारण किए जाते हैं तब वह संयमासंयम कहलाता है। पराधीनता के कारण या अनुसरण-अनुकरण के लिए जो अहितकर प्रवृत्ति किंवा आहारादि का त्याग है वह अकामनिर्जरा है और बालभाव से अर्थात् विवेक के बिना ही जो अग्निप्रवेश, 1. बह्वारंभपरिग्रहत्वं च नरकस्यायुषः (तत्त्वा० 6 / 16) 2. माया तिर्यग्योनस्य। (तत्त्वा० 6 / 17) 3. अल्पारंभपरिग्रहत्वं स्वभावमार्दवमार्जवं च मानुषस्य। (तत्त्वा० 6 / 18) 4. सरागसंयमसंयमासंयमाकामनिर्जराबालतपांसि देवस्य। (तत्त्वा०६।२०) प्राक्कथन] श्री विपाक सूत्रम् [55