Book Title: Uttaradhyayan Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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उत्तराध्ययन सूत्र - पहला अध्ययन
कठिन शब्दार्थ - णिसंते - अतिशांत, सिया - हो, अमुहरी - परिमितभाषी, बुद्धाणंआचार्यों के, अंतिए - समीप में, सया - सदा, अट्ठजुत्ताणि - अर्थ युक्त पदों को, सिक्खिजा - सीखे, णिरट्ठाणि - निरर्थक पदों को, वजए - छोड़ दे।
भावार्थ - साधु को चाहिए कि वह सदा अतिशय शान्त और वाचालता रहित कम बोलने वाला हो तथा आचार्यादि के समीप मोक्ष अर्थ वाले आगमों को सीखे और निरर्थक - मोक्ष अर्थ से रहित ज्योतिष, वैद्यक तथा स्त्री-कथादि का त्याग करें।
विवेचन - विनयशील शिष्य का धर्म है कि वह सदा शांत रहे, कभी क्रोध न करे, बिना विचार किये कभी न बोले, आचार्यों के समीप रह कर परमार्थ साधक तात्त्विक पदार्थों की शिक्षा ग्रहण करे और परमार्थ शून्य पदार्थों को जानने के निमित्त अपने अमूल्य समय को नहीं खोवे।
विनय के सूत्र अणुसासिओ ण कुप्पिजा, खंति सेविज पंडिए। खडेहिं सह संसग्गिं, हासं कीडं च वजए॥६॥
कठिन शब्दार्थ - अणुसासिओ - अनुशासित, ण कुप्पिजा - क्रोध न करे, खंति - क्षमा को, सेविज - सेवन करे, पंडिए - पंडित, खुढेहिं - क्षुद्रों के, सह - साथ, संसग्गिंसंसर्ग को, हासं - हास्य को, कीडं - क्रीड़ा को। ___ भावार्थ - यदि कभी गुरु महाराज कठोर वचनों से शिक्षा दें, तो भी बुद्धिमान् विनीत शिष्य को क्रोध न करना चाहिए किन्तु क्षमा - सहनशीलता धारण करनी चाहिए, दुःशील क्षुद्र व्यक्तियों के अर्थात् द्रव्य बाल और भाव बाल व्यक्तियों के साथ संसर्ग-परिचय न करना चाहिए और हास्य तथा क्रीड़ा का सर्वथा त्याग कर देना चाहिए।
विवेचन - टीका में "कीड" का अर्थ करते हुए अन्त्याक्षरी, प्रहेलिका आदि को भी क्रीड़ा कहा है। मनोरंजन की सभी प्रवृत्तियाँ, साधना जीवन में उपयोगी नहीं होने से उन्हें यहाँ पर - "हास्य" एवं "क्रीड़ा" शब्द से समझना चाहिए।
- गुरु का उपदेश मा य चंडालियं कासी, बहुयं मा य आलवे। कालेण य अहिज्जित्ता, तओं झाइज्ज एगओ॥१०॥
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