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श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर :
करने में पृथ्वी सदृश श्री जिनभद्रगणि महाराज का कहना हैं कि :
तं मंगलमाईए, मज्झे पजंतए य सत्थस्स । पढमं सत्थत्थाविग्ध - पारं गमनाय निद्दिहं ॥१॥
इत्यादि
भावार्थ:- शास्त्र के आरम्भ, मध्य एवं अन्त में मंगलोच्चारण करना चाहिये । उस में प्रथम मंगल शास्त्र और उसके अर्थका निर्विन समाप्त होने के लिये करना कहा गया है । इत्यादि ।
इसी प्रकार शिष्ट जनोंद्वारा भी मंगलोच्चारण का आचरण होना पाया गया है । शिष्ट पुरुष किन को कहते हैं ? शास्त्ररूप सागर को पार करने के लिये जो शुभ व्यापार में प्रवृत्त होते हैं उनको शिष्ट पुरुष कहते हैं । कहा भी है कि:शिष्टानामयमाचारो, यत्ते संत्यज्य दूषणम् । निरन्तरं प्रवर्तन्ते, शुभ एव प्रयोजने ॥ १ ॥
भावार्थ - शिष्टजन का आचरण होता है कि वे दूषणों का परित्याग कर निरन्तर शुभ कार्य में ही प्रवृत होते हैं ।
अपितु बुद्धिमान् पुरुषों का कोई भी कार्य निष्प्रयोजन नही होता क्यों कि बिना प्रयोजन के किया हुआ कार्य तो मार्ग में पडी हुई कांटेवाली हती के उपमर्दन करने तुल्य