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श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर : साठ व्याख्यानों के कहे जाने से अब्ददिन परिमिता नाम की करता हूँ। इस स्थान पर प्रथम तीन प्रणव (ॐकार) की स्थापना करके उस के पश्चात् तीन आकाश बीज (ही) की स्थापना करके तत्पश्चात् सरस्वती बीज (ऐं) की स्थापना करके-ए रूप मंत्र का नमन कर इस शास्त्र का आरम्भ किया गया है।
जिस प्रकार बालक की तुतली आवाज भी उसके पिता को रोचक एवं कर्णप्रिय प्रतीत होती है उसी प्रकार लेखक का यह प्रलापरूपी वचन भी श्रुतधरों के सामने सत्यपन को प्राप्त होगा, जिस प्रकार कोई तृषातुर प्राणि क्षीरसागर में से थोड़ासा जल लेकर भी अपनी तृषा की तृप्ति करता है उसीप्रकार लेखकने भी अनेकों शास्त्रों में से थोड़ा थोड़ा ग्रहण कर यह व्याख्या लिखी है कि जिससे वह निंद्य नहीं बने । इस ग्रन्थ में प्रथम एक एक श्लोक कह कर उस पर गद्य में एक एक दृष्टान्त दिया गया है इससे उनकी संख्या भी वर्ष के दिनों के अनुसार तीन सो और साठ हो गई है।
प्रत्येक ग्रन्थ के आरम्भ में नमस्काररूप, ग्रन्थ की वस्तु का प्रदर्शन करने निमित्त अथवा आशीर्वादरूप मंगल विघ्न के नाश करने को तथा शिष्ट समुदाय के आचार पालन निमित्त करना आवश्यक है। कहा भी है कि: