________________ अनुवाद-दमयन्ती के वियोग के कारण अत्यन्त कृश हुए नल राजमहल में घूमते-घूमते थककर भवनों की पंक्तियों के उन्नत समतल स्थानों में बार-बार विश्राम लेते रहते थे // 36 // टिप्पणी-अधित्यकासु-अधित्यका के स्थान में कहीं-कहीं उपत्यका पाठ भी मिलता है। विद्याधर, चाण्डूपंडित और मल्लिनाथ 'उपत्यकासु' ही पाठ देते हैं / अमरकोष में इन दोनों शब्दों का अर्थ इस तरह किया गया है-'उपत्यकादरासन्ना भूमिर्ध्वमधित्यका' / अर्थात् पहाड़ की ऊंचाई पर समतल मैदान को अधित्यका ( पठार ) और नीचाई पर समतल प्रदेश को उपत्यका (तलहटी) कहते हैं। हमें प्रकृत में पर्वत जैसे महलों के ऊँचे समतल स्थान की अपेक्षा पास के समतल स्थान वाला अर्थ यहाँ उचित लगता . / नारायण भी टीका में स्वयं भी 'उपत्यकासु' इति पाठः साधीयान्' मान चुके हैं। विद्याधर के अनुसार इस श्लोक में काव्यलिंग है / शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है / उल्लिख्य हंसेन दले नलिन्यास्तस्मै यथादर्शि तथैव भैमी। तेनाभिलिख्योपहृतस्वहारा कस्या न दृष्टाजनि विस्मयाय // 37 // अन्वयः- हंसेन नलिन्या दले (भैमीम् ) उल्लिख्य तस्मै यथा भैमी अदर्शि, तथा एव तेन अभिलिख्य उपहृतस्वहारा भैमी दृष्टा ( सती ) कस्याः विस्मयाय न अजनि / टीका-हंसेन पूर्वम् नलिन्याः कमलिन्याः दले पत्रे ( भैमीम् ) उल्लिख्य चित्रापितां कृत्वा तस्मै नलाय यथा येन प्रकारेण भैमी अदशि दर्शिता आसीत, तथा तेन प्रकारेण एव अभिलिख्य लिखित्वा चित्रयित्वेति यावत् उपहृत : कण्ठे अपितः स्वः स्वकीयः हार: मौक्तिकस्रक ( कर्मधा 0 ) यस्याः तथा भूता मैमी दृष्टा विलोकिता सती कस्याः अन्तःपुर-सुन्दर्याः विस्मयाय आश्चर्याय न अजनि नाभूत् अपितु सर्वस्या अजनि इति काकुः / विश्रान्ति-क्षणे नलः कमलिनी-दले पूर्व हंसेन लिखितस्य तस्मै दर्शितस्य च दमयन्ती-चित्रस्यैवानुसारेण तस्याः चित्रं निर्माय, तस्याः गले च स्वहारं चित्रयति स्म, यद् दृष्ट्वा सर्वा अपि हर्म्य-स्त्रियः चकिता अभवन्निति भावः // 37 // व्याकरण- नलिनी नलिनान्यस्यां। सन्तीति नलिन + इन + ङीप् / अवशि/दृश् + णिच् + लुङ् ( कर्मवाच्य ) / अजनि/जन् + लुङ् ( कर्तरि ) / विस्मयः वि + /स्मि + अच् ( भावे ) /