________________ नैषधीयचरिते व्याकरण--स्पृष्टकम् /स्पृश् + क्त ( भावे ) + क (स्वार्थे ) / एत्य आ + इ + ल्यप् / ०रजःस्थे रजस् + /स्था + कः ( कर्तरि ) / अनुवाद--( कोई ) मृगनयनी जिस जगह नल के साथ 'स्पृष्टक' आलिंगन करके रोमाञ्चित हो उठी थी, वहीं दोबारा आ गई। वहाँ जमीन की धूल पर पड़े इन ( नल ) के पद-चिह्न पर गिरकर धीरे-धीरे बोल बैठी-( मुझ पर ) कृपा कीजियेगा' // 35 // टिप्पणी--स्पृष्टकम्-यह एक प्रकार का आलिंगन होता है, जिसका लक्षण रतिरत्नप्रदीपिका में यह किया गया है-'प्रसंगेनाभिमुख्येन यूनोः संगच्छतो: पथि / अन्योऽन्यमङ्गसंश्लेषः स्पृष्टकं तदुदाहृतम्' / ( 3 / 21 ) अर्थात् प्रसंगवश मार्ग में आमने-सामने आते हुए प्रेमी-प्रेमिकाओं के अंग यदि एक-दूसरे से टकरा जाये, तो उसे 'स्पृष्टक' कहते हैं। इस प्रकार का आलिंगन प्रायः मन का भाव जानने हेतु होता है। मृगाक्षी में लुप्तोपमा है। विद्याधर के अनुसार यहाँ हर्ष-नामक संचारी भाव होने से भावोदयालंकार है, लेकिन हमारे विचार से यहाँ हर्ष संचारी नहीं, बल्कि रोमाञ्च नामक सात्विक भाव है, जो अनुभाव के अन्तर्गत है। हर्ष रोमाञ्च को भी कहते हैं जैसे 'रोमहर्षश्च जायते' / 'मगा' 'मृगा' में छेक अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / भ्रमन्नमुष्यामुपकारिकायामायस्य भैमीविरहात्नशीयान् / / __ असौ मुहुः सोधपरम्पगणां व्यधत्त विश्रान्तिमधित्यकासु // 36 // ___ अन्वयः-भैमी-विरहात् क्रशीयान असो उपकारिकायाम् भ्रमन् आयस्य सोध-परम्पराणाम् अधित्य कासु मुहुः विश्रान्तिम् व्यधत्त / टीका-भैम्याः दमयन्त्याः विरहात् वियोगात् कारणात् क्रशीयान् अतिशयेन कृशः असो नलः उपकारिकायाम् राजप्रासादे भ्रमन सञ्चरन् आयस्य क्लमं प्राप्य श्रान्तो भूत्वेति यावत् सोधानाम् भवनानाम् परम्पराणाम् पङ्क्तीनाम् अधित्यकासु उन्नतभूमिषु मुहुः वारं वारं विधान्तिम् विश्रमम् व्यधत्त कृतवान् // 36 // ___ व्याकरण-शीयान कृश + ईयसुन्, ऋ को र। आयस्य आ+/यस् + ल्यप् / सौधम् सुधया ( प्रस्तरचूर्णेन ) निर्मितं लिप्त वेति सुधा + अण् / अधित्यकासु, उपत्यकासु-अधि, उप + त्यकन् संज्ञायाम् ( 5 / 2 / 34 ) / विधान्तिम् वि + Vश्रम् + क्तिन् ( भावे ) / व्यवत्त वि + /धा + लुड् !