________________ षष्ठः सर्गः शून्य बने रहने वाले रोम को जो उस ( कामदेव ) ने हर्षोल्लसित किया है, वह उसने पत्थर को नचाया है // 34 // टिप्पणी नल के अंग-स्पर्श से अथवा उनका प्रतिबिम्ब देखने से सुन्दरियों के अंगों अथवा नयनों के हर्षोत्फुल्लित होने में कोई आपत्ति नहीं, क्योंकि अंग चेतन पदार्थ हैं। असम्भव बात तो यह है कि स्त्रियों के अचेतन तत्त्व रोम भी हर्षित हो गये / काटने पर वे दुःखी कहाँ होते हैं ? यह तो ऐसी बात हुई कि जैसे अचेतन पत्थर नाचने लगे हों। यहाँ रोमों को हर्षित करना और है एवं पत्थरों को नचाना और है। दोनों एक नहीं हो सकते, इसलिए असंभवद्वस्तुओं का यहाँ 'रोमहर्षणं अश्मननिमिव' यों बिम्ब-प्रतिबिम्ब-भाव होने से मल्लिनाथ के अनुसार निदर्शना है। विद्याधर यहाँ क्रिया-विरोध कह रहे हैं। कायलिंग तो स्पष्ट ही है / नल के अंगों के स्पर्श से सुन्दरियों को हर्ष नामक संचारीभाव होने से भावोदयालंकार भी है। 'नलाङ्गमङ्गं' 'नला' 'नल' में छेक, 'रत्या' 'पत्या' में पदान्तगत अन्त्यानुप्रास, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / यस्मिन्नलस्पृष्टकमेत्य हृष्टा भूयोऽपि तं देशमगान्मृगाक्षी / निपत्य तत्रास्य धरारजःस्थे पादे प्रसीदेति शनैरवादोत् // 35 // अन्वयः-मृगाक्षी यस्मिन् ( देशे ) नल-स्पृष्टकम् एत्य हृष्टा, तम् देशम् भूयः अपि अगात्; तत्र धरारजःस्थे अस्य पदे निपत्य 'प्रसीद' इति शनैः अवादीत् / टीका-मृग्याः अक्षिणी इव अक्षिणी ( उपमान तत्प० ) यस्याः तथाभूता (ब० वी० ) काऽपि मृगनयनी यस्मिन् स्थाने नलस्य स्पृष्टकम् एतदाख्यम् आलिगनविशेषम् एत्य प्राप्य हृष्टा रोमाञ्चिता जातेति शेषः, तम् देशम् स्थानम् (सा) भयः पुनः अपि अगात् अगच्छत् / तत्र तस्मिन् देशे धरायाः पृथिव्याः यत् रजः धूलिः (10 तत्पु० ) तस्मिन् तिष्ठतीति तथोक्ते ( उपपद तत्पु० ) धूलिगते इत्यर्थः अस्य नलस्य पदे पदचिह्न निपत्यं पतित्वा नमस्कारं कृत्वेति यावत् 'प्रसीद प्रसन्नो भव, मयि कृपां कुरु' इति यावत् इति शनैः मन्दस्वरं यथाऽन्यः कश्चिन्न शृणोतु अवादीत निजगात् / अकस्मात् नलगात्रेण स्वगात्रस्य संघट्टनात् रोमाञ्चिता कापि मृगनयनी कामाधीना भूत्वा पुनः नलेन संघट्टमैच्छदिति भावः // 35 //