________________ षष्ठः सर्गः समाप्त हो जाने से भाव-शमन अलंकार है। विद्याधर कायलिंग मान रहे हैं। शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है। जागति तच्छायदृशां पुरा यः स्पृष्टे च तस्मिन्विससर्प कम्पः / द्रुते द्रुतं तत्पदशब्दभोत्या स्वहस्तितश्चारुदृशां परं सः // 33 // अन्वयः-तच्छायदृशाम् चारदृशाम् पुरा यः कम्पः जागति, तस्मिन् स्पृष्टे च ( यः कम्पः ) विससर्प, सः द्रुतम् द्रते ( तस्मिन् ) तत्पद-शब्दभीत्या परम् स्वहस्तितः / टीका-तस्य नलस्य छायाम् प्रतिबिम्बम् (10 तत्पु० ) पश्यन्तीति तथोक्तानाम् ( उपपद तत्पु० ) चारु रम्ये दशौ नयने ( कर्मधा० ) यासां तथाभूतानाम् (ब० वी० ) सुलोचनानामिति यावत् पुरा पूर्वम् यः कम्प: सात्विकभावरूपो वेपथु: जागति जागरितः समुत्पन्न इत्यर्थः तस्मिन् अदृश्ये नले स्पृष्टे स्पर्शविषयीकृते च विससर्प प्रससार ववुधे इत्यर्थः, दर्शनापेक्षया स्पर्शनेन कम्पाख्यसात्विकभावस्याधिक्यं स्वाभाविकमेव, स कम्पः स्पर्शन-भयात् बुतम् शीघ्रम् द्रुते पलायिते तस्मिन् नले, तस्य नलख्य पदानाम् पाद प्रक्षेपाणाम् ( उभयत्र 10 तत्पु० ) शब्दात ध्वनेः भीत्या भयेन ( का ) (पं० तत्पु० ) परम् अत्यन्तम् स्वः हस्त: हस्तावलम्ब: साहाय्यमिति यावत् तम् प्रापितः, दत्तस्वहस्तावलम्बी. कृत इति यावत् पूर्व प्रतिबिम्बावलोकनेन, तदनु देहस्पर्शेन च क्रमशो वर्धमानः कम्पः पश्चात् तत्पादप्रक्षेपशब्दभीत्या अतिशयेन वृद्धि प्राप्त इति भावः // 33 // व्याकरण-तच्छायम् इस सम्बन्ध में पिछला श्लोक देखिए। ०दृशाम् Vश + क्विप ( कर्तरि ) / जागति 'पुरा' के योग में भूतार्थ में लट् / द्रुते * + क्त ( कर्तरि ) / भीतिः भी + क्तिन् ( भावे)। स्वहस्तितः इसकी व्युत्पत्ति पीछे श्लोक 25 में आये हुए ‘गलहस्तित' शब्द की तरह कर लीजिये। अनुवाद-उन ( नल ) का प्रतिबिम्ब देखने वाली सुलोचनाओं को जो कम्प पहले हुआ था तथा उनको छू लेने पर जो और फैल गया था, उनको जल्दी जल्दी भाग जाने पर उनकी पग-ध्वनि के भय ने उसे बहुत अधिक बढ़ा देने में अपनी सहायता दे दी / / 33 // टिप्पणो--भय के उदय होने से विद्याधर यहाँ भावोदयालंकार मान रहे हैं / किन्तु इस बात का ध्यान रहे कि नल को देखने और छू लेने पर सुन्दरियों को जो कम्प पहले हुआ, वह शृङ्गार रसका सात्विक भाव अथवा अनुभाव था.