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समतायोग का मार्ग : मोक्ष की मंजिल ३५
समतायोग के मार्ग से मोक्ष की मंजिल पाने के पाँच उपाय
अतः समतायोगी साधक को समतायोग के शुद्ध मार्ग से मोक्ष की मंजिल पाने के लिए पाँच उपायों को आजमाना चाहिए। वे पाँच मार्ग इस प्रकार हैं(१) प्रतिक्रिया से विरति, (२) सर्वभूत- मैत्री, (३) उपयोगयुक्त समस्त क्रियाएँ, (४) धर्म-शुक्लध्यान की स्थिरता, और (५) ज्ञाता-द्रष्टाभाव।
प्रतिक्रिया - विरति : क्या, क्यों और कैसे ?
समत्व-साधक के तन, मन, वचन में किसी भी वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति तथा संयोग को लेकर प्रतिक्रिया नहीं होनी चाहिए। अधिकांश लोग मन में पूर्वाग्रह- हठाग्रह- दुराग्रह के वशीभूत होकर प्रतिक्रिया की भाषा में ही सोचते हैं, प्रतिक्रिया की चेष्टा भी काया से करते हैं। अमुक व्यक्ति ने मेरा बुरा कर दिया तो मैं भी उसका दुगुना बुरा कर दूँ, उसे हानि पहुँचा दूँ। इस प्रकार प्रतिक्रियावश एक व्यक्ति अपने दिल-दिमाग में कितनी ही व्यक्तियों से जुड़ी हुई घटनाएँ ढोता रहता है । ऐसी ही प्रतिक्रिया धीरे-धीरे शत्रुता में परिणत हो जाती है। किन्तु प्रतिक्रिया - विरत व्यक्ति किसी भी प्रतिकूल घटना, परिस्थिति या व्यक्ति का वैचारिक भार नहीं ढोता, वह इतना - सा सोचकर कि जो हो गया, हो गया; साम्यभाव में स्थित हो जाता है। मनुष्य के मन में जब तुच्छ स्वार्थ की प्रबलता होती है, तव तरह-तरह की प्रतिक्रियाएँ उभरती रहती हैं। सबके प्रति जब बन्धुता या आत्म-समता की भावना होती है, तब प्रतिक्रिया नहीं होती, नही शत्रुता के भाव उभरते हैं।
' जैसे को तैसा' यह प्रतिक्रिया का सिद्धान्त अधिकांश लोगों के दिल-दिमाग में जमा हुआ है। मूर्ख कहे तो उसके बदले में सामने वाले को महामूर्ख कहना इत्यादि प्रतिक्रियाओं के सूत्र हैं, किन्तु प्रतिक्रिया - विरति के कुछ सूत्र हैं - ( १ ) प्रतिक्रिया के समय को लम्बाना; (२) एक साथ क्रोधादि कषायों को शान्त न कर सको तो तत्काल प्रतिक्रिया मत करो; (३) प्रत्येक परिस्थिति में स्वस्थ और प्रसन्न रहो ; (४) किसी का उपकार, सेवा अथवा हित बदले की भावना से न करो।
प्रतिक्रिया - विरति का एक सूत्र है - समस्त प्राणियों के प्रति आत्मौपम्य बुद्धि, सबमें आत्मा की अनुभूति। ‘“जो अपनी आत्मा को जानता - देखता है, वह दूसरों की आत्माओं को भी जान-देख पाता है।"" जैसी आत्मा मेरे में है, वैसी ही आत्मा दूसरे में है, ऐसी अनुभूति करने से मन में प्रतिक्रिया का भाव नहीं आ सकता । जब मानव साम्यसूत्र के द्वारा सब प्राणियों में उसी परम शुद्ध आत्मा का अनुभव
१. जे एगं जाणइ, से सव्वं जाण ।
जे सव्वं जाणइ, से एगं जाणइ ॥
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- आचारांग, श्रु. १, अ. ३, उ. ४
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