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ॐ ३७२ * कर्मविज्ञान : भाग ८ *
पण्डितमरण का सच्चा आराधक
तात्पर्य यह है कि जिसकी श्रद्धा, प्रतीति, रुचि, विश्वास और आस्था आत्मा में हो; जिसका जीवन सम्यग्ज्ञानमय हो, संयम का मन-वचन-काया से पालन हो, लिये हुए ब्रह्मचर्य के आचरण के नियम को प्राण-प्रण से पालन करता हो, तपश्चर्या के द्वारा कर्मों को क्षय करता हो, केवली-प्ररूपित धर्म की आराधना करता हो, त्रिविधशल्य से रहित हो; भव-सत्य, करण-सत्य और योग-सत्य से ओतप्रोत हो, किसी प्रकार का निदान (नियाणा) न करता हो तथा जो संलेखना-संथारा करके मृत्यु के सहज रूप से आने पर उसका सहर्ष स्वागत करता हो; उसे ही भगवान ने पण्डितमरण का सच्चा आराधक कहा है। सभी मरणों के मुख्य दो प्रकार : समाधिमरण और असमाधिमरण
पूर्वोक्त सभी मरणों को सरलता से समझने के लिए हम उन्हें दो भागों में विभक्त कर सकते हैं-समाधिमरण और असमाधिमरण। जहाँ आत्मा, (अरिहन्त-सिद्ध) परमात्मा, आत्म-धर्म, धर्म-प्राप्ति, उत्तम साधन (शास्त्रादि) या निमित्तरूप-सद्गुरुदेव या सद्धर्मभाव में रहते हुए अन्तिम समय में शान्ति, धैर्य, समता और समाधिपूर्वक देह-त्याग हो, ऐसी मृत्यु समाधिमरण कहलाती है। परिस्थिति एवं चित्तवृत्ति की विविधता के कारण इसके अनेक प्रकार हो सकते हैं। इसके विपरीत जहाँ स्वजन, कुटुम्ब आदि सजीव तथा विषयभोग, कषाय, धन-सम्पत्ति, सुखभोग के साधन आदि किसी भी पर-पदार्थ के प्रति मोह-मायायुक्त संसारभाव में रहते हुए शरीर छूटता है, मृत्यु होती है, वहाँ असमाधिमरण है। समाधिमरण की सफलता के लिए तीस भावनाएँ-अनुप्रेक्षाएँ __ समाधिमरण के लिए मुमुक्षु आत्मा को अपने मरण के समय सावधानी रखकर उसे सुधारना चाहिए। समाधिमरण भी तभी सफल हो सकता है, जब साधक आत्म-स्वरूप में स्थिर होकर स्व-स्वभाव में रहे तथा आधि, व्याधि और उपाधि से मुक्त रहे।' समाधिमरण की प्रक्रिया कोई एक दिन में पूर्ण होने वाली नहीं है। समाधिमरण की तीस भावनाओं का प्रतिदिन अथवा कम से कम महीने में दो-चार दिन चिन्तन करना चाहिए, तभी पापभीरुता आ सकती है। जीवन भी अच्छा और समाधिमय बन सकता है और फिर मरण भी समाधिपूर्वक हो सकता है। वे तीस भावनाएँ क्रमशः इस प्रकार हैं
(१) अनन्त परमाणुओं से बना हुआ यह शरीर देखते-देखते नष्ट हो जाता है। पुद्गलों की कैसी विचित्रता है ! अतः उस (शरीर) पर कैसे भरोसा रखा जा सकता है ? इसलिए धर्माचरण में जरा भी प्रमाद नहीं करना चाहिए। १. 'आत्मार्थी मारे मोक्ष पामवानो उपाय' (श्री शान्तिलाल कालाभाई मेहता) से अनूदित, पृ. २९ २. 'समाधिमरण' (गुजराती) से हिन्दी में साभार अनुवाद
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