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ॐ ४६२ ॐ कर्मविज्ञान : भाग ८ 3
विकृतियों अथवा विघ्न-बाधाओं को मद्देनजर रखते हुए जैन जगत् के विख्यात अध्यात्म तत्त्वदर्शी साधक श्रीमद् राजचन्द्र जी ने मुक्ति या लक्ष्यसिद्धि के क्रमशः सोपानों का 'अपूर्व अवसर एवो क्यारे आवशे ?' नामक २१ पद्यों में सांगोपांग निरूपण किया है, उस पर स्व. मुनि श्री संतबाल जी ने सुन्दर विश्लेषणयुक्त विवेचन किया है।
जैनागमों में प्रसिद्ध चौदह गुण (जीव) स्थान मोक्षमहल तक पहुँचने की क्रमशः चौदह सीढ़ियाँ हैं। इनमें मोक्षयात्री की चेतना के ऊर्ध्वारोहण के लिए साधनात्मक
और दार्शनिक दोनों दृष्टियों से आध्यात्मिक विकासक्रम का सांगोपांग निरूपण है। इन इक्कीस पद्यों में जो आध्यात्मिक विकास की प्ररूपणा है, उन सब के वीज जैनागमों में यत्र-तत्र मिलते हैं। इसलिए इन सब में उल्लिखित निरूपण जैन- .. सिद्धान्त और कर्मविज्ञान के अनुरूप है तथा आत्मा की पूर्ण मुक्ति तक पहुँचने की, यानी मुक्ति की मंजिल तक पहुँचने की तथ्य-सत्य संगत बातें किसी भी आस्तिक दर्शन से एवं धर्म-सम्प्रदाय से विरुद्ध नहीं हैं। मुक्ति के सोपानों पर आरोहण करने की योग्यता किसमें ? . ____ मुक्ति के सोपानों पर आरोहण से पूर्व जैनदृष्टि से जन्म-मरणादि रूप संसार
और इस संसारसागर के सर्वथा अन्तरूप मोक्ष के बीच में आत्मा की मुख्यतया तीन दशाओं को तथा इनमें से कौन-सी दशा वाला मनुष्य मुक्ति के सोपानों पर आरोहण करने के योग्य है ? इस तथ्य को समझना चाहिए। ____ संसार और मोक्ष इन दोनों स्थितियों के बीच में आत्मा की मुख्यतया तीन दशाएँ होती हैं-बहिरात्म-दशा, अन्तरात्म-दशा और परमात्म-दशा। मोहरूपी निद्रा में सोये हुए जीव द्वारा आत्मा के शुद्ध स्वभाव को भूलने से भ्रान्तिवश शरीर आदि को आत्मा मानने से होने वाली प्रवृत्ति बहिरात्म-दशा है। सम्यग्दर्शन एवं सम्यग्ज्ञान या विवेक द्वारा भ्रम हटने से अपने आत्म-स्वभाव के प्रति रुचि होकर शरीर और शरीर से सम्बद्ध सजीव-निर्जीव आदि पर-पदार्थ या वैभाविक भाव अपनी आत्मा से भिन्न हैं, इस प्रकार के भेदविज्ञान का प्रकाश जिस दशा में मिले, वह अन्तरात्मदशा है और इससे ऊपर उठकर वीतरागभाव पराकाष्ठा वाली अवाच्य, निष्कलंक, निर्मल, घातिकर्मों या सर्वकर्मों से मुक्त परम शुद्ध दशा परमात्म-दशा है।
इन तीनों दशाओं में से जब मध्यवर्ती अन्तरात्म-दशा-सम्यग्दृष्टि की दशा आती है, तब उस दशा वाले जीव को सर्वोपरि दशा की तेजस्विता, महत्ता और शुद्ध आत्मा की पराकाष्ठा की झलक और बोधि मिलती है। ऐसी स्थिति में उस अन्तरात्म-दशा-प्राप्त सम्यग्दृष्टि में उक्त भव्य सर्वोपरि पूर्ण मुक्ति, लक्ष्य-सिद्धि की दशा प्राप्त करने की उत्कण्ठा, पिपासा, तीव्रता और उत्कृष्टभावरसता जागती है। बस, उसी अवस्था, मनःस्थिति और परमात्म-दशा का यहाँ क्रमशः दिग्दर्शन कराया
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