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ॐ ४७० * कर्मविज्ञान : भाग ८ ॐ
शान्त पड़े हुए विषयासक्ति, राग-द्वेष-मोह तथा कषायों के संस्कार निमित्त मिलते ही उभरकर आ जाते हैं और राख के ढेर में दबी हुई शान्त आग के समान उपशान्त वृत्ति साधक को भुलावे में डाल देती है। अमक प्रसंगों में निर्विकारी दिखाई देने वाला मन प्रबल निमित्त मिलते ही साधक को विकारों के दलदल में वापस उसी या उससे भी नीची विकारी दशा में धकेल देता है। इसलिए जब तक दर्शनमोह का. महासागर अच्छी तरह पार न हो जाए तब तक पर-पदार्थों का तथा शरीरादि के प्रति ममता-मूर्छा का त्याग तथा सर्व-पर-पदार्थों के प्रति उदासीनता-ऊर्ध्वमुखी वृत्ति या विरक्ति सर्वथा कृतकार्य नहीं हो सकेगी। अर्थात् दर्शनमोह पहले दूर हो तभी . चारित्रमोह के क्षय करने की पगडंडी पर चला जा सकेगा।'
इसलिए सर्वप्रथम दर्शनमोह का दूर होना अत्यावश्यक है। मोहनीय कर्म का एक भेद-दर्शनमोहनीय तभी दूर होगा, जब साधक को यह दृढ़ प्रतीति हो जाएगी : कि चेतन देह से बिलकुल पृथक् है। आत्मा का समूचे सचेतन शरीर में व्याप्त होते. हुए भी चैतन्य-शक्ति अपने स्व-भाव (स्व-धर्म) में अचल रूप से स्थिर है; शरीर, कर्म आदि पुद्गलों का धर्म-पर-धर्म (पर-भाव) इससे पृथक है। साथ रहते हुए भी . चेतन (आत्मा) इस पर-भाव में मिल नहीं जाता। ऐसे यथार्थ आत्म-स्वरूप का ज्ञान = अनुभव दर्शनमोह दूर होने पर हो जाता है। दृष्टिमोह को पार करने के बाद आत्मा (चेतन) देह से सर्वथा भिन्न है, ऐसा यथार्थ ज्ञान दृढ़ हो जाता है। दर्शनमोह दूर होने पर सम्यक्ज्ञान के विचार-विवेकरूप नेत्रद्वय खुल जाते हैं
तात्पर्य यह है कि जिस वस्तु को जीवन में उतारना हो, तविषयक दृष्टि पहले परिशुद्ध कर लेनी चाहिए। सम्यकदृष्टिरूपी शाण के दो पहलू हैं-विचार
और विवेक। विचार का अर्थ है-पदार्थ के चारों ओर सर्वतोमुखी मानसिक परिक्रमा करके उसमें गहरे उतरना और विवेक का अर्थ है-उस वस्तु का विश्लेषण करके उसमें विद्यमान सत्य को बाहर निकाल लेना। ये दोनों सम्यग्ज्ञान की आँखें हैं। विवेक और विचार से रहित ज्ञान अन्धा होता है। अतः विचार और विवेक की आँखों से वस्तु (शुद्ध चेतना) की जाँच-पड़ताल करने के बाद भावना
और धारणा के पात्र में उसका स्थान सुदृढ़ हो जाता है, फिर वह प्रबल से प्रबल निमित्तों के मिलने पर भी अपने यथार्थ स्वरूप के आचरण में विचलित नहीं हो सकता। ऐसा होने पर त्याज्य का अनायास ही त्याग किया जा सकता है और ग्राह्य का सहजभाव से ग्रहण किया जा सकता है। अतः दर्शनमोह दूर होते ही पहले कभी १. (क) दर्शनमोह व्यतीत थई, उपज्यो बोध जो, देहभिन्न केवल चैतन्यनुं ज्ञान जो।।
एथी प्रक्षीण चारित्रमोह विलोकीए, वर्ते एबुं शुद्धस्वरूपनुं ध्यान जो॥अपूर्व ॥३॥ (ख) “सिद्धि के सोपान, पद्य ३' के विवेचन से भाव ग्रहण, पृ. ८-९
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