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ॐ ४७६ 9 कर्मविज्ञान : भाग ८ *
वह जैन-सिद्धान्त के अनुसार-त्रस और स्थावर प्राणियों के प्रति संयम के सिवाय अजीवों पर भी संयम रखेगा, पाँचों इन्द्रियों और मन भी उनके विषयों के प्रति प्रेक्षा, उपेक्षा, अपहृत्य आदि संयम रखने में जरा भी प्रमाद नहीं करेगा, अपने मन, वाणी
और काया (अंगोपांगों) को जरा भी असंयम की ओर नहीं जाने देगा। उसके संयम-पालन में परीषह और उपसर्ग भी बाधक बनकर खड़े हो जाते हैं, यहाँ तक इन दोनों का भय भी उसे विचलित करने के लिए आता है, मगर आत्म-स्थिरता से आगे की भूमिका में रग-रग में संयम को रमाने वाले साधक के जीवनमार्ग में वे परीपह
और उपसर्ग, आधि-व्याधि और उपाधि, भीति और प्रलोभन सभी उसकी कर्मनिर्जरा में सच्चे साथी या जाग्रत रखने वाले बन जाते हैं। आशय यह है, छठे सोपान में पिछली दशा से उच्च भूमिका यानी छठे गुणस्थान में आने पर उस मुमुक्षु साधक के मन, वचन और काया के प्रत्येक योगों की प्रवृत्ति सिर्फ संयम के हेतु से होगी। वह मन-वचन-काया से अपने योगों की चंचलता को अत्यन्त कम करके केवल संयम-यात्रा के लिए आवश्यक प्रवृत्ति करेगा। उसमें भी उसका संयम आत्मलक्षी-स्वरूपलक्षी और वीतराग की आज्ञा के अधीन होगा। परन्तु ऐसा तभी तक होगा, जब तक उसकी साधक-दशा में कभी-कभी प्रमत्तावस्था आती है। यानी ऐसा लक्ष्य-कार्य, कारण और . कर्ता की प्रमादयुक्त साधना-दशा में ही होगा। किन्तु ज्यों-ज्यों उसमें इससे उन्नत अवस्था की सहजता आती जाती है, त्यों-त्यों वह इन सबके भिन्नत्वं-पृथक्त्व को तोड़ देता है, ये सब उसके निज-स्वरूप में ही विलीन हो जाते हैं। तात्पर्य यह है कि ध्येय, ध्यान और ध्याता तीनों सहज रूप से उसमें एकाकार हो जाते हैं। आत्म-स्थिरता से आगे की भूमिका : संयम हेतु योगों की प्रवृत्ति
यह आत्म-स्थिरता से आगे की भूमिका है। इसमें संयम के हेतु से ही योगों की प्रवर्तना इसलिए आवश्यक है कि साधक के पूर्वबद्ध कर्म उदयावलिका में प्रविष्ट होकर उसे पूर्णतया विरक्तिभाव-समभाव में नहीं रहने देते। ऐसी स्थिति में संयम की साधारण स्फुरणा प्रमाद और कषायरूप प्रच्छन्न चोरों के आक्रमण को रोक नहीं पाती। परन्तु ऐसी स्थिति में संयम के हेतु से ही त्रिविध योगों की प्रवृत्ति का सूत्र अहर्निश उसके स्मृति-पथ पर रहना आवश्यक है। ऐसी साधना एक ओर से भावना, विचार और क्रियमाण कर्म में प्रबल शुद्धि लाती है, तो दूसरी ओर से स्वरूपलक्षी जिनाज्ञाधीनता होने से पर-भावों और विभावों से अनायास विरक्ति या विरति कर्म-संस्कारों के पूर्वकालीन अध्यासों के जोर को ठंडा करके विरक्तिमुखी अभिरुचि को प्रबल बनाती है।'
१. (क) संयमना हेतुथी योग-प्रवर्तना, स्वरूपलक्षे जिन-आज्ञा-अधीन जो।
ते पण क्षण-क्षण घटती जाती स्थितिमां, अंते थासे निजस्वरूपमा लीन जो|अपूर्व.॥५॥ (ख) 'सिद्धि के सोपान' से भाव ग्रहण, पृ. २२-२३
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