Book Title: Karm Vignan Part 08
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 530
________________ * ५१० ॐ कर्मविज्ञान : भाग ८ 8 एवं आरोग्य की दृष्टि से दाँत साफ रखने या अंग स्वच्छ रखते हुए भी शृंगारजन्य दोषों और विकारों से दूर रहना अशक्य नहीं है। परन्तु शृंगारजन्य विकारों और दोषों से दूर न रहे, खुद को और दूसरों को अपने शरीर के प्रति मोह बढ़े, इस प्रकार का आचरण हो तो वह साधक अशुभ कर्मबन्ध से दूर नहीं रह सकता। 'दशवैकालिकसूत्र' के अनुसार-" 'मैं सुन्दर कैसे दीखू ?' ऐसी शरीर-सौन्दर्यवृत्ति रखकर विभूषा में पड़ा हुआ भिक्षु चिकने कर्म बाँधता है। वह उन कर्मों के फलस्वरूप दुस्तर और घोर संसार-सागर में गिरता है। इसलिए इस पद्य में वर्णित कथन का तात्पर्य इतना ही है कि साधक कायिक मूर्छा न बढ़े, इस दृष्टि से मूर्छावर्धक अंगों से सावधान रहे। अर्थात् कायिक अमूर्छा सदा बनी रहे, इस प्रकार का व्यवहार होना चाहिए। कोई साधक स्वादेन्द्रिय पर तो काबू न रखे और तले हुए, मिष्टान्न या दुष्पाच्य गरिष्ठ या मिर्च-मसालों से युक्त पदार्थ सेवन करता जाए, किन्तु दाँतों को साफ न रखे तो पायोरियां आदि दंतरोग होने की संभावना है। इसी तरह शरीर पर सतत वस्त्र लपेटे रखे और जमी हुई मैल की परत को शरीर पर से उतारे नहीं तो बदबू से सारा वातावरण गंदा होगा, , लीख आदि त्रीन्द्रिय जीवों की उत्पत्ति होगी और वह उनकी विराधना में निमित्त रूप बनेगा। सभ्य जनों के बीच रहते हुए भी नंगा फिरे तो वह नग्नत्व अपने और देखने वाले दोनों के लिए साधक के बदले प्रायः बाधक बनते हैं। मानव बुद्धि ने मनुष्य को प्रकृति से जितना दूर रखा, उतने ही अधिक टीपटाप, ऊपरी टीपटाप, साजसज्जा, आडम्बर और रागरंग संसार में बढ़े हैं। फलतः विकारी विकल्पों और देहमूर्छा के कारण होने वाले खानपान तथा रहन-सहन शरीर में पसीने और मैल की दुर्गन्ध को बढ़ा देते हैं। परन्तु जो साधक प्रकृति के 'सत्य, शिव और सुन्दर' की त्रिवेणी वाले मार्ग में विचरण करते हैं, उन्हें शरीर परिकर्म (शरीर सत्कार), शृंगार आदि की कोई खटपट नहीं करनी पड़ती। इसलिए इस भूमिका वाले साधक को कदाचित् स्नान, दंतधावन, केश प्रसाधन या वस्त्र-परिधान की जरूरत न पड़ती हो, फिर भी अंग-शुद्धि, मुख-शुद्धि, आरोग्य और स्वाभाविकता सुरक्षित रहती है, तो उसका प्रकाशमान सत्य-शिव-सुन्दर रूप विश्व-प्रेरक और सर्वाकर्षक बना रह सकता है। मगर इस भूमिका में पहुँचने की साधना में शरीर श्रृंगार या देहासक्ति (शरीर-मूर्छा) को उत्तेजित करने वाले साधनों से उतना ही दूर रहना चाहिए, जितना कि अंग-चेष्टादि द्वारा शृंगार-पोषण और कामोत्तेजन होने के खतरे से दूर रहा जाता है। १. विभूसावत्तियं भिक्खू कम्मं बंधइ चिक्कणं। संसार-सायरे घोरे, जे पडइ दुवरुत्तरे॥ -दशवै., श्रु. ६, गा. ६६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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