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५०८ कर्मविज्ञान : भाग ८
नवम सोपान : द्रव्य-भावमय संयमरूप पूर्ण निर्ग्रन्थ-साधना की सिद्धि
'मैं सच्चा कैसे कहलाऊँ, मैं जन-समाज में अच्छा कैसे कहलाऊँ और मैं सुन्दर . कैसे दीखूँ ?' ये तीन प्रकार की भावनाएँ सभी जीवों में प्रायः प्रबल मात्रा में दिखाई देती हैं। ये भावनाएँ मूल में तो 'सत्यं शिवं और सुन्दरम्' से अनुप्राणित आत्म-स्वरूप की हैं, इन्हीं का पूर्ण आध्यात्मिक रूप है - सत्, चित् और आनन्द की परिपूर्णता । किन्तु जहाँ तक देहाध्यास होता है, वहाँ तक 'मैं शरीर, मन और प्राण हूँ' ऐसा भान जीव को होता है, अथवा ऐसा भान होने की सम्भावना रहती है। इसलिए पूर्वोक्त त्रिपुटी का भाव शारीरिक चाल-ढाल, वाचिक बोलचाल तथा बौद्धिक हलचल और मानसिक संकल्प-विकल्पों में उतरकर कृत्रिमता का अधिकाधिक पोषण करता है। वह कृत्रिमता का पोषण इसलिए करता है कि आत्मा के मौलिक धर्म (स्वभाव) आत्मा से पृथक् शरीर आदि में स्वाभाविक रूप से कभी प्रादुर्भूत हो ही नहीं सकते। - बातें आत्मा के धर्म (स्वभाव) में न हों, उन्हें औपचारिक रूप से लाने का प्रयत्न करना ही कृत्रिमता का पोषण कहलाता है । '
निर्ग्रन्थता : आत्मा के निजी स्वाभाविक गुणों को प्रगट करने का पुरुषार्थ
वस्तुमात्र का यह एक व्यापक और सनातन नियम है कि उसके स्वाभाविक गुणों को विकसित करने के लिये बाह्य व्यक्ति, साधन एवं सामग्री की सहायता की अपेक्षा बहुत कम रहती है; जबकि वैभाविक गुणों को बाह्य सामग्री की सहायता की बहुत जरूरत पड़ती है । परन्तु वे स्वाभाविक गुणों से परे होने के कारण स्थायी नहीं रहते और न ही वास्तविक प्रसन्नता प्राप्त करा सकते हैं। इसलिए अन्त में तो जीव को स्वाभाविक गुणों के विकास करने के राजमार्ग पर ही आना पड़ता है और पहले ली हुई सारी सहायता और मेहनत बेकार जाती है। इतना ही नहीं, इनके कारण आत्मा के स्वाभाविक गुण जितनी मात्रा में दब गये हैं, उतनी ही गहराई में जाकर उन्हें ऊँचा लाने का उसे प्रयत्न भी करना पड़ता है । इस दृष्टि से निर्ग्रन्थता का यह अर्थ सही उतरता है कि आत्मा के स्वाभाविक गुणों को प्रकट करके विकसित करने की उत्कृष्ट साधना । इस प्रकार जैसे उपर्युक्त कथन में भाव- संयम की दृष्टि मालूम हो जाती है, वैसे ही इस ( अगले ) पद्य में द्रव्य-संयम की दृष्टि पर भार दिया गया प्रतीत होता है। पूर्व पद्य में " सूक्ष्म जगत् में वह साधक कैसा होना चाहिए?" इसका दर्शन है, जबकि इस पद्य में यह बताया गया है कि “वह साधक अपने आप के प्रति स्थूल जगत् में कैसा होना चाहिए ।"२
१. 'सिद्धि के सोपान' से भाव ग्रहण, पृ. ६६-६७
२. कोई क्रिया को कहत मूढमति, और ज्ञान कोई प्यारो रे !
मिलत भावरस दोऊ में प्रगटत, तू दोनों से न्यारो रे ॥
चेतन ! अब मोहे दर्शन दीजे ॥
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