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ॐ ५०६ ७ कर्मविज्ञान : भाग ८ *
योग-साधना तथा तपःसाधना से प्राप्त होने वाली सिद्धियाँ या शरीरगत लब्धियाँ, जिनके पीछे संसार के अधिकांश जन पागल बने हुए हैं, वे प्राप्त हो जायें तो भी उनमें न फँसना, उनके चक्कर में न पड़ना, बहुत ही असाधारण और कठिन है। . प्रलोभन के दो अंग : लैंगिक और सिद्धियों का आकर्षण
प्रलोभन के मुख्यतया दो अंश हैं-(१) लैंगिक आकर्षण की अन्तिम सीमा, तथा (२) दिव्य सिद्धियों की प्राप्ति। प्रथम प्रलोभन पर विजय का ज्वलन्त उदाहरण : सती राजीमती का ...
प्रथम प्रलोभन पर विजय प्राप्त की थी, सती राजीमती ने। एकान्त स्थान, असहाय (एकाकी) दशा, सद्यः अंगीकृत त्यागमय जीवन, तरुण एवं पूर्व-परिचित योगी रथनेमि द्वारा स्वयं कामयाचना; फिर भी साध्वी राजीमती निश्चल रहीं, डिगी नहीं। इतना ही नहीं, डिगते या संयम से विचलित होते हुए तरुण योगी को भी उन्होंने संयम में स्थिर किया। स्त्री-शक्ति की निर्भयता, निष्कम्पता और सर्वोत्कृष्ट प्रतिभा का यह उज्ज्वल चित्र है। साध्वी राजीमती की भूमिका वेदभाव . (कामवासना) को पार कर चुकी थी, इसी कारण वे इतना कर सकी और उस तरुण योगी रथनेमि की आत्मा भी उस भूमिका के अतिनिकट पहुँच गई थी, तभी तो वे उस महासती के उद्गारों को पचा सके। यह है लैंगिक आकर्षण की चरम सीमा पर विजय का ज्वलन्त उदाहरण ! प्रलोभन का दूसरा बड़ा अंग : निदानशल्य
प्रलोभन के इस एक अंग के जीत लेने पर भी यदि दूसरे निदानरूप बड़े अंग को जीतना बाकी रह गया तो लोभ पर सम्पूर्ण विजय नहीं समझा जायेगा। अर्थात् अणिमा, महिमा आदि अष्ट-सिद्धियों तथा सत्ता, धन, पद, अधिकार, चमत्कार आदि की उपलब्धियों आदि के चक्कर में न फँसना, इन फिसलनों से सर्वथा अलिप्त रहना अत्यन्त दुष्कर है। फिर भी कतिपय विरल आत्माएँ इन फिसलनों के मोहजाल से-निदान से युक्त होने की साधना में सफल हुए हैं। निदानशल्यरूप लोभ पर हार और जीत
चित्त और सम्भूति दोनों मुनि सहोदर भाई थे। लगातार पाँच जन्मों तक अपने स्नेह सम्बन्ध के कारण विविध गतियों में बन्धुत्व भाव से पैदा हुए और जीए। छठे जन्म में एक ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती के रूप में और दूसरा चित्त मुनि के जीव के रूप में पृथक्-पृथक् रूप से जन्मे। छठे जन्म में दोनों की पृथक्ता का कारण यह बनाचित्त मुनि ने पूर्व-भव में घोर तपस्वी होते हुए भी अपनी आत्म-समृद्धि को सनत्कुमार चक्रवर्ती जैसे भौतिक समृद्धि के लिये बेचा नहीं, जबकि सम्भूति मुनि ने
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