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8 ५०४ - कर्मविज्ञान : भाग ८ *
सूक्ष्म मान (सम्मान) का अनुकूल उपसर्ग होने पर भी मन विचलित न हो, इसका ज्वलन्त उदाहरण है-महानिर्ग्रन्थ अनाथी मुनि का। चक्रवर्तीतुल्य मगधसम्राट् श्रेणिक नृप का मस्तक वीतराग भगवान या वीतरागता-पथिक साधु-साध्वी के सिवाय अन्य के चरणों में नहीं झुकता था। एक दिन मंडीकुक्ष उद्यान में उसने एक ध्यानस्थ सौम्यमूर्ति, युवक मुनि को देखा। देखते ही उसके मन में विचार आयाकैसी भव्य मुखमुद्रा ! कितनी भव्य कान्ति ! मुनि ने जब कायोत्सर्ग पारित किया तो उनसे पूछा-"आपने इस यौवन अवस्था में, सर्वगुण-सम्पन्न होते हुए भी यह कठोर निर्ग्रन्थता का मार्ग क्यों अपनाया?" मुनि ने अति नम्रातिनम्र भाषा में कहा"राजन् ! मैं अनाथ था।" श्रेणिक ने उन्हें प्रलोभित करने के लिए भक्तिभावपूर्वक कहा-"तो लो, मैं आपका नाथ बनता हूँ, मेरे पास सभी सुखभोग सामग्री है, वह आपको सौंपता हूँ।" परन्तु श्रेणिक नरेश की अपने प्रति अनुपम व अनुकूल भक्ति देखकर अनाथी मुनि ने नम्रातिनम्र अनाथ शब्द का प्रयोग करके उसे पूर्णतया हजमा करके सत्कार-सम्मान परीषह पर विजय प्राप्त कर ली। अनाथी श्रमण की ऐसी अकृत्रिम सहज व्यापकता देखकर तो श्रेणिक नृप को और अधिक आश्चर्य हुआ। मुनि को तो इससे भी अधिक ऊँचा उठना था। इस दृष्टि से उन्होंने अपनी अनाथता सिद्ध करके बता दी। अतः अन्त में मुनि के मुख से सनाथता-अनाथता का विवेचन सुनकर राजा को यह स्फुरणा हुई कि जिसे इतनी सहज-सिद्धि प्राप्त हुई है, फिर भी जो स्वयं को अनाथ बतलाता है, तो एकाध गाँव जीतने पर या अधीनस्थ राजाओं द्वारा मुझे नमन किये जाने पर मूंछों पर ताव लगाने वाला मैं किस बिसात में हूँ ! मुाने के प्रेरणाप्रद विवेचन से श्रेणिक राजा को जबर्दस्त प्रेरणा मिली। अगर उस समय नृपति के द्वारा नमस्कार और प्रशंसात्मक वाक्यों से ऐसा अभिमान पैदा होता कि “मैं कुछ विशिष्ट व्यक्ति हूँ"; तो श्रेणिक के समक्ष वह निरभिमानतापूर्ण उद्गार नहीं प्रकट कर सकते थे और न ही श्रेणिक के मन पर इतना प्रबल प्रभाव भी पड़ता। सूक्ष्म माया नाश की प्रतीति कैसे हो, कैसे नहीं ? .
इस प्रकार मान को फिर भी नष्ट किया जा सकता है, किन्तु माया को नष्ट करना अतीव दुष्कर है। वैदिक पुराणों में आख्यान है कि माया की मोहनी में महादेव जैसे भी चक्कर खा गये और इतिहास-सिद्ध बात है कि धधकती खाई में भी शूरवीरों के अटल निश्चय-बल टिके रहे, किन्तु वे ही सुन्दरियों के मृदु-स्मित और कटाक्ष के मायाजाल के आगे विचलित हो गए। इसीलिए उच्च कोटि के साधक के लिए कहा है-“देह जाय, पण माया थाय न रोममा।" माया के चार अर्थ और उन पर विजय का ज्वलन्त उदाहरण : सुदर्शन सेठ का ___ माया का अर्थ यहाँ वेदभाव (काम के कपटजाल) से सम्बन्धित है। इस सम्बन्ध में सुदर्शन सेठ का एक पूर्वार्द्ध जीवनचित्र प्रमाणरूप में प्रस्तुत किया जा सकता है।
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