Book Title: Karm Vignan Part 08
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 531
________________ * मुक्ति के अप्रमत्तताभ्यास के सोपान ५११ शृंगारोत्तेजक बाह्य साधनों के अतिसहवास से विरक्त वृत्ति को भी विकृत मार्ग की ओर मुड़ने का खतरा है। इसीलिए अन्तिम चरण में स्पष्ट किया है - " द्रव्यभाव - संयममय निर्ग्रन्थ सिद्ध जो ।' अर्थात् द्रव्य और भाव दोनों प्रकार से संयममय रहने से ही निर्ग्रन्थता सिद्ध होती है। द्रव्य और भाव, व्यवहार और निश्चय दोनों एक ही सिक्के की दो बाजू हैं। द्रव्य न हो, वहाँ भाव अकेला होता नहीं, तथैव भाव हो, वहाँ द्रव्य ( दीखे या न दीखे ) है ही । वहाँ अदृश्यरूप से द्रव्य रहता ही है । भाव मूल आत्मा है, उसकी शुद्धि या उस पर आई हुई विकृति की निवृत्ति के लिए द्रव्य से भी संयम रखना आवश्यक है। अर्थात् संयम की भावना और संयम का व्यवहार दोनों आवश्यक हैं, छद्मस्थ साधक की भूमिका में । ज्ञान और क्रिया दोनों मोक्ष के साधक होते हैं । ज्ञान का अर्थ यहाँ जिम्मेवारी का सक्रिय भान और क्रिया का अर्थ तदनुरूप मर्यादित संयम व्यवहार है। दोनों का सन्तुलन आवश्यक है । ' १. 'सिद्धि के सोपान' से भाव ग्रहण, पृ. ६९-७० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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